नायक का प्रम (जो शृगार रन का स्थायी है ) शोक का अंग बन गया है क्योकि वह उनकी वृद्धि कर रहा है। अतएव विरोधी होने पर भी वह रस का बाधक नहीं, वग्न बद्धक है, इसलिये चौथे नियम का संगत होना स्पष्ट है । पाँचवे नियम का उदाहरण- कहा भयो जीते समर लहे कुसुम मम गात । बात कहत ही मनुज जो काल गाल में जात ॥ इस पद्य के प्रथम चरण मे चीर रम और द्वितीय चरण में शृंमार रम विगजमान है । तीमरा-चौथा चरण शांत रसनाभित है। वीर और शृंगार परस्पर विरोधी है. कितु वे दोनो शात रस के अंग बन गये हैं। इसीलिये उनके पारम्परिक विरोध का परिहार हो गया है। शांत रस की प्रधानना ही पद्य से दृष्टिगोचर हो रही है, शेप दोनो रसाने अंगांगी- भाव से उसमे अपने को वित्तीन कर दिया है. क्योकि वे उसकी पुष्टि कर नहे है । इसलिये पचम नियम को विरोव-परिहार-शक्ति स्पष्ट है । रसगंगाधरकार कहते है- “यत्र साधारण विशेषणमहिम्ना विनयोरभिव्यक्तित्तत्रापि विरोधी निवर्तते" 'जहाँ एक से विशेषणों के प्रभाव से दो विरुद्ध रस अभिव्यक्त हो जाते हैं. वहाँ भी उनका विरोध-निवृत्त हो जाता है -यथा आहव मै आरक्त है यहि यौवन मदभार । कर आलिगन अवनि को सोये सुभट अपार ॥ उनकी यह सम्मति भी है- "किं च प्रकृतरसपरिपुतिमिच्छता विरोधिनोऽपि रसत्य बाध्यत्वेन निवन्धन फायमेव, तया हि सति चैरिविजयकृता वय॑स्य कापि शोभा सपद्यते। वाध्यत्व च रतस्य प्रभन्नेविरोधिनो रसत्यानविद्यमानेष्यपि न्याझेप नि पत्तेः प्रतिबन्धः" "प्रकरण प्राम रम को अन्छी तरह पुष्ट करने के लिये विरोधी रस का बाधित करना उचित है. अतः उसका वर्णन अवश्य करना चाहिये, ,
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