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पृष्ठ:रसकलस.djvu/७८

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५३ (२) स्थायीभाव और सचारिभावो का उनके वाचक पदो ले अभिज्ञान करना। १३) विरोधी रस के अगभून बिभाव अनुभावादिको का वर्णन करना। (४) विभाव और अनुभाव का कठिनता मे आनेप हो सकना । () गम का अम्थान ( अनुचित स्थान ) में विस्तार या विन्छन्द्र करनावारवार उसे उसीत करना। (६ प्रधान को भुला देना अर्थात अंगी का अनुसंधान न करना । (७) जो अग नहीं है उनका वर्णन करना । (5) अगभूत रम को अति विस्तृत करना। (E) प्रकृतियों का विपर्याम करना अर्थात् उन्हे उलट-पलट देना । (१०) अर्थ अथवा अन्य किमी के औचित्य को भंग कर देना। अब उदाहरण देकर प्रस्तुत विपय को स्पष्ट करता है। १-मामान्य रस शब्द और विशेष शृंगार शब्द का शब्द-वाच्यत्व काके उर उपजत न रस मृगनयनी को चाहि । विधु-मुख-छवि शृगार में मन करत नहि काहि ॥ इस पत्र के प्रथम भाग में रन शन्द और द्वितीय भाग मे शृंगार सन्द आया है पहला शक रस वय अपना वाचक है, अतएव वह मानान्य है, दूसरा गार शब्द रस का विशेप वाचक है अतएव पद्य मे दोनों दोष उपस्थित हैं. इसलिय यह रचना मदीप है। प्रयोजन यह कि कविता में व्यंजना ही प्रधान होती है, जहाँ इस शक्ति से काम न लेकर अभिधा द्वारा काम निकाला जाता है, वहाँ कविता अपना महत्त्व खो देती है और उन्न पद से गिर जाती है. जो उसको महत्त्व प्रदान करता है. प्रतएव उसका नद्रोप होना स्पष्ट है। इन पत्र मे अभिधा द्वारा काम लिया गया है. इन प्रौर अनार का नाम लेकर उसकी व्यंजना शिगाड दी गई है । उसको इतना बोल दिया गया है कि उत्तम