पृष्ठ:रसकलस.djvu/७९

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५४ ? व्यंजना का अवसर ही नही रहा । यदि 'काके उर उपजत न रस' के स्थान पर 'काको उर सरसत नहीं' अथवा 'काको उर उमगत नहीं होता, और शृगार के स्थान पर 'आनद' रखा जाता, तो दोष दूर हो जाता। कविता की व्यजना द्वारा ही रस का ज्ञान होना चाहिये, यदि रस ने प्रकट होकर स्वयं अपना नाम बतलाया तो उसमे कवि-कर्म कहाँ रहा २- स्थायीभाव का स्वशब्दवाच्यत्व- 'भई सचरित रति हिये छबि लखि बनी निहाल ।' सचारी भाव का स्वशब्द वाच्यत्व- 'लज्जावश नव बाल के भे कपोल युग लाल ॥' पहले चरण मे रति शब्द का और दूसरे चरण मे लज्जा का प्रयोग होने से पहले मे स्थायीभाव और दूसरे मे सचारी भाव अपने शब्दो मे ही प्रकट किया गया, इसलिये दोनो मे रस-दोष आ गया। इनमे भी वही बात है, जो ऊपर कही गई है, अर्थात् जिस वात को व्यजना द्वारा प्रकट होना चाहिये था, उसे अभिधा द्वार सूचित किया गया है । रसगगाधरकार लिखते हैं- "इत्थमविरोधसपादनेनापि निबव्यमानो रसो रसशब्देन शृगारादिशब्टै नाभिधातुमुचितोऽनास्वाद्यतोपत्ते । तदास्वादश्च व्यञ्जनमात्रनिष्पाद्य इत्युक्तत्वात् । यत्र विभावादिभिरभिव्यक्तस्य रसस्य स्वशब्देनाभिधान तत्र को दोष इति चेत् , व्यग्यस्य वाच्यीकरणे सामान्यतो वमनाख्यदोपस्य वक्ष्यमाणत्वात् । अास्वाद्यता- वच्छेदकरूपेण प्रत्ययाजनक्तया रसस्थले वाच्यवृत्ते कापेयकल्पत्वेन विशेषदोप- त्वाच्च । एवं स्थायिव्यमिचारिणामपि शब्दवाच्यत्व दोप ।" "जिस रस का वर्णन किया जावे उसके रस शन्द अथवा शृगारादि शब्दो से वोल देना अनुचित है, क्योकि ऐमा करने से रम अाम्वाद करने योग्य नहीं रहना, प्रकट हो जाने के कारण उसका मजा जात रहता है, इसलिये पहले कह चुके हैं, कि रस का आस्वादन केवल व्यंजना वृत्ति से ही सिद्ध होता है । आप पूछ सकते हैं कि जहाँ विभा- ,