पृष्ठ:रसकलस.djvu/८४

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५६ , यथा धीरोदात्तत्य रामस्य धीरोद्धसवच्छपना वालिवधः। यथा वा कुमारसम्भवे उत्तमदेवतयोः पावतोपरमेश्वरयोः संभोगगारवर्णनम् । 'इट् पित्रोः सभोगवर्णन- मिवात्यन्तमनुचितम् इत्याहुः।" "प्रकृतियों तीन प्रकार की होती हैं-दिव्य, अदिव्य, दिव्यादिव्य । इनके धीरोदात्त आदि (धीरोदात्त धीरोद्धत, धीरललित, और धीर- प्रशान्त ) भेद भी पहले कहे हैं। उनमे भी उत्तमत्व, मध्यमत्व और अधमत्व होता है। इनमें से जो जैसी प्रकृति का है उसके स्वरूप के अनुरूप उसका वर्णन न होने से प्रकृति-विपर्यय होता है। जैसे धीरो- दात्त नायक श्रीरामचंद्रजी का धीरोद्धत की भॉति कपट से वाली का वध करना और कुमारसंभव मे उत्तम देवता श्रीपार्वती और महादेव का संभोग शृगार वर्णन करना। इसके विपय में प्राचीन आचार्य मम्मट कहते हैं कि माता-पिता के संभोग वर्णन के समान यह वर्णन प्रत्यंत अनुचित है।" -हिंदी साहित्यदर्पण। दिव्य देवताओ की, अदिव्य मनुष्य की और दिव्यादिव्य प्रकृति अवतारो और संसार के महापुरुपो की मानी जाती है। इसलिये इन लोगो का वर्णन जिस समय किया जावे, उस समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो जिस प्रकृति का हो उसका वर्णन वैसा ही हो. अन्यथा उस वर्णन में प्रकृति विपर्यय दोप श्रा जावेगा। असंभव कार्यो को कर दिखलाना, स्वग पाताल को छान डालना, समुद्र का उल्लंघन करना, बिना किसी यंत्र के आधार के शारीरिक शक्तियो द्वारा पक्षियो के समान आकाश में उड़ना, दिव्य शक्तिवालो अथवा विशेप अवस्थाओ में दिव्यादिव्य शक्तिवानी का कार्य है, यदि अदिव्य शक्तिवालो से इस प्रकार के कर्म कराये जाये, तो वहीं प्रकृति-विपर्यय कहलावेगा. और यह दोष है। इसी प्रकार यदि मानवी श्रीन् अदिव्य प्रकृतियों की दुर्वलता, उनकी लम्पटताएँ, उनका दुर्व्यसन, उनका भ्रम. मोह. प्रमाद, दिव्य अथवा दिव्यादिव्य प्रकृतियो मे दिखलाये जावं. नो-यह , N