सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

$. कानां व्यवहारती विशेयम् । यत्र तेपामयुक्तमिति धीरिति केचिदाहुः । तदपरे न क्षमन्ते । मुनिपत्न्यादिविषयकरत्यादेः सग्रहेऽपि बहुनायकविषयाया अनुभयनि- घ्याश्च रतेरसत्रहात् । तत्र विभावगतस्यानौचित्यस्यामावात् । तस्मादनौचित्येन रत्वादिविशेषणीयः इत्थं चानु चितविभावाम्लवनाया बहुनायकविषयाया अनुभय- निष्ठायाश्च सनद इति । अनौचित्यं च प्रावदेव ।" "उसके लक्षण के विपय मे कुछ विद्वानों का मत है-अनुचित विभाव को बालंबन मानकर यदि रति आदि का अनुभव किया जाय तो रसाभास हो जाता है। रहा यह कि किस विभाव को अनुचित मानना चाहिये और किसको उचित, सो यह लोक व्यवहार से समझ लेना चाहिये । अर्थात् जिसके विपय मे लोगो की यह बुद्धि है कि यह अयोग्य है, उसीमे अनौचित्य का आरोप किया जा सकता है। पर दूसरे विद्वान् इन लक्षण को सुनकर चुप नहीं रहते, वे कहते हैं-इस लक्षण के द्वारा यद्यपि मुनी-पत्नी आदि के विपय मे जो रति श्रादि होते हैं, उनका सग्रह हो जाता है, क्योकि इनर मनुष्य मुनि-पत्नी आदि को अपना प्रेमपान माने यह अनुचित है । तथापि अनेक नायकों के विपय मे होनेवाली और प्रियतम प्रियतमा दानों में से केवल एक ही में होनेवाली रति का इममें संग्रह नहीं होता, क्योकि वहाँ तो विभाव अनुचित नहीं. किन्तु प्रम अनुचिन रूप से प्रवृत्त हुआ है, अत. अनुचित विशेषण रति आदि के साथ लगाना उचित है । अर्थात् यह लक्षण बनाना चाहिये- "जहाँ रति आदि अनुचित रूप से प्रवृत्त हुए हो वहाँ रसाभान होता है।" इम नरह, जिनमें अनुचित विभाव आलयन न हो, जो अनेक नायकों के विपय ने हो. और जो प्रियतम प्रियतमा दोनो में न रहती हो. उस रति का भी लग्रह हो जाता है। अनुचितता का नान तो इस मन मे भो पूर्ववत (लोक व्यवहार ) से ही कर लेना होगा। --