७२ "तत्र रसाद्याभासत्व रसत्वादिना न समानाधिकरणं निर्मलस्यैव रसादित्वाद्- हेत्वाभासत्वमिव हेतुत्वेनेत्येके । नानुचितत्वेनात्महानिरपि तु सदोषत्वादाभास व्यवहारोऽश्वाभासदिव्यवहारवदित्यपरे"। -मुख्य ग्रथ ८४ पृ० द्वि० ख० "रसाभासो के विपय में एक और विचार है । कुछ विद्वानों का कथन है “जहॉ रसादि के श्राभास होते हैं, वहाँ रस आदि नहीं होते, उन दोनो का माथ साथ रहना नियम विरुद्ध है, क्योंकि जो निर्मल हो जिसमें अनुचितता न हो, उसीका नाम रस है। जैसे कि जो हेत्वाभास होता है, वह हेतु नहीं। दूसरे विद्वानो का कथन है-अनुचित होने के कारण स्वरूप का नाश नहीं हो सकता अर्थात् वह रस हो है, किंतु दोपयुक्त होने से उन्हें आभास कहा जाता है, जैसे कोई अश्व दोपयुक्त हो, तो लोग उसे अश्वाभास कहते हैं"। -हिंदी रसगगाधर २६६, २७० मैं समझता हूँ, यह अंतिम सम्मति ही ठीक है, कुछ अनौचित्य, के कारण रस कलुपित हो सकता है कितु यह नहीं हो सकता कि उसमें रस का अभाव हो जावे। यह भी समझ लेना चाहिये कि सब जगह अनौचित्य से रसाभास नहीं हो जाता। जहाँ अनौचित्य से किसी रस । की पुष्टि होती हो, अथवा जहाँ अनौचित्य का उद्देश चरित्र सुधार, कलक अपनोदन, किंवा दोप अवगतकरण हों, वहाँ वह वर्जित नहीं होता। अनौचित्य वही निंदनीय होता है, जो रस के प्रतिकूल हो। यथा- कचन-सचय में निपुम रखत कचनी मान । कैसे वनै महत नहिं महि में महिमावान ।। किसी धर्माचार्य पर कटाक्ष करना अनौचित्य है, इस पद्य मे यही किया गया है, अतएव इसमे रसाभास माना जा सकता है। किंतु महत के चरित्र शोधन के लिये ही, इस पद्य में उनकी हसी उड़ाई गई है, अतएव यहाँ अनौचित्य हास्य रस को पुष्ट करता है, उसके प्रतिकूल नहीं है, इसलिये इसमे रमाभास नहीं माना जायगा। इसी प्रकार अन्यो को भी समझना चाहिये।
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