नल ने कहा—मैंने जो तुम्हारे उन दोनों प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया वह इसलिए कि मैंने वैसा करना व्यर्थ समझा। उससे लाभ की कुछ भी सम्भावना नहीं। अच्छा वक्ता वही है जो मतलब की बात भी कह दे और अपने कथन को व्यर्थ बढ़ावे भी नहीं। मेरा नाम क्या है और मेरा जन्म किस वंश में हुआ है—ये ऐसी बातें हैं जिनका सम्बन्ध प्रकृत विषय से कुछ भी नहीं। हम दोनों इस समय एक दूसरे के सामने हैं। अतएव, जिस काम के लिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ उसका सम्पादन, बिना मेरा नाम-धाम बतलाये भी, अच्छी तरह हो सकता है। इस विषय की बात-चीत में, पारस्परिक सम्बोधन के लिए, केवल 'मैं' और 'तुम' यही दो सर्वनाम काफी हैं। अच्छा, कल्पना करो कि मेरा जन्म किसी बुरे वंश में हुआ है। इस दशा में उसका नामोल्लेख किस तरह उचित माना जा सकेगा? और, यदि मेरा वंश उज्ज्वल है, तो भी उसका नाम लेना मुझे उचित नहीं। क्योंकि ऐसे वंश में जन्म पाकर भी मेरा यहाँ दूत बन कर आना अपने वंश की बहुत बड़ी विडम्बना है। इसी से इन बातों के विषय में उदासीनता दिखा कर मैंने देवताओं का सन्देश तुम से कह सुनाया। तुम्हें भी यही उचित है कि अवान्तर बातों पर व्यर्थ विवाद न करके मेरे द्वारा लाये गये सन्देश ही का उत्तर देने के लिए तुम अपनी वाणी को प्रवृत्त करो। अच्छा, जाने दो। यदि तुम्हे इतना निर्बन्ध है तो दो शब्द कह कर मैं तुम्हारी इच्छा को पूर्ण ही क्यों न कर दूं। लो सुन लो, मैं चन्द्रवंशी हूँ। अब तो तुम्हारा आग्रह सफल हो गया? नाम मैं अपना अपने ही मुंह से नहीं बतला सकता। भले आदमी अपना नाम अपने ही मुंह से नहीं लेते। क्या तुम नहीं जानती कि महात्माओं ने नियम ही ऐसा कर दिया है? लोक-निन्दा के डर से मैं इस नियम का उल्लंघन करने का साहस नहीं कर सकता।