इसका कारण यह न था कि दमयन्ती उस सन्देश को कोई गौरव की चीज़ समझती थी। नहीं, वह सन्देश उसकी दृष्टि में बिलकुल ही तुच्छ था। नल को जो उसने बीच ही में नहीं रोक दिया, इसका कारण यह था कि नल के सन्देश-कथन का ढंग बहुत ही अनोखा था। उसकी उक्तियाँ बड़ी ही मनोहारिणी थीं। उसकी वाणी बहुत ही रसवती थी। इसी से उक्ति-श्रवण के लोभ में पड़ कर, अन्त तक दमयन्ती उसकी बातें सुनती रही। सुना तो उसने सब, पर उसका कुछ भी असर उस पर न हुआ। नल के कथित सन्देश को बिलकुल ही अनसुना-सा करके उसने इस प्रकार कहना आरम्भ किया—
आप तो बड़े ही विचित्र जीव मालूम होते है। मैंने आपसे आपका नाम पूछा; आपका वंश पूछा; आपका स्थान पूछा। पर मेरे इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न देकर, न मालूम, आपने क्या-क्या अनाप-शनाप कह डाला। मुझे अपने कई प्रश्नों का उत्तर आपसे पाना है। इस कारण, इस विषय में आप मेरे ऋणी हैं। क्या यह आपके लिए लज्जा की बात नहीं? अपना पहिला कर्ज न चुका कर, किस नैतिक नियम के अनुसार, आप मुझसे उत्तर के रूप में और कुछ चाहते हैं।
जिस तरह सरस्वती नदी की धारा कहीं दृश्य और कहीं अदृश्य है, ठीक उसी तरह का हाल आपकी मुखस्थ सरस्वती (वाणी) का भी है। आपकी बातों में स्पष्टता और अस्पष्टता दोनों का मिश्रण है। आपकी सुधा-सदृश बातें सुन कर मेरे श्रवण निःसन्देह कृतार्थ हो गये, तथापि आपका और आपके वंश का नाम सुनने के लिए वे अब तक उत्सुक हैं। उनकी यह उत्सुकता पूर्ववत् बनी हुई है। प्यासे की प्यास पानी ही से जा सकती है; घड़ों दूध अथवा सेरों शहद से नहीं। अतएव तब न सही अब, उनके इस औत्सुक्य को दूर करने की उदारता दिखाइए।