पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/१२९

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पृष्ठ १०५—पहिले अपना...कर = मेरा प्रश्न पहिला है और आप उसका उत्तर देने को बाध्य है, उस ऋण को मिना चुकाये अर्थात् मेरे प्रश्नो का उत्तर न देकर।

पृष्ठ १०६—प्रकृत विषय = उपस्थित प्रसंग। अवान्तर बातें = गौण बातें। विडम्बना = निरादर। निर्बन्ध = हठ।

पृष्ठ १०७—सुधांशु = चन्द्रमा। वाग्मिता = बोलने की शक्ति। प्रतारश विद्या = चलने का गुण। दिकपाल = दिशाओं के स्वामी।

पृष्ठ १०८—परिप्लुप्त = पूर्ण। कल्प = चार सौ युम। ऊर्ध्वमुख = अग्नि को मति ऊपर की ही ओर होती हैं; घमंडी। बारबार...है = बराबर 'नहीं' 'नहीं' करते रहना वाक्शक्ति का निरादर करना है।

पृष्ठ १०९—दिगीश्वर = दिशाओं के स्वामी, इन्द्रवरुणादिक। कुरङ्गकन्यां = हरिणी। मत्तगजराज है = हरिणी का मस्त हाथी पर अनुरक्त होना उपहासास्पद है। असंगत = अयोग्य। समस्त साक्षिणी = सब बातों को प्रत्यक्ष देखने वाली।

पृष्ठ ११०—सदाचार समुद्र के कर्णाधार = जिस प्रकार समुद्र पर माझी मार्ग दिखलाता है उसी प्रकार अच्छे आचार-विचार को मार्ग बतलाने वाले देवगण हैं। ईश्वर = सामर्थ्यवान्। राजमार्ग = मुख्य रास्ता।कर्दममय = कीचड़ से भरा हुआ। मैंने........सुनाइएगा = जो बातें मैने संक्षेप में कही हैं उनको विस्तारपूर्वक समझाइएगा।

पृष्ठ १११—निधि = लक्ष्मी। पराङ्गमुखी = विमुख । मर्त्यजन्म = मनुष्ययोनि जिनका स्वभाव ही मरना है। दुराग्रह = बुरी हठ। यः कश्चित् = कोई भी; साधारण।

पृष्ठ ११२—प्राणोत्क्रमण=मृत्यु। अन्तरिक्ष = आकाश। बहिर्गत = बाहर निकले हुए। परित्राण = रक्षा। वक्रोक्ति = कहा तो कुछ जाये पर सुनने वाली उसका दूसरा ही अर्थ निकाले। अपनी.........रही = अपने निषेध से तुम कहीं प्रकारान्तर से मेरी बात स्वीकार ही तो नहीं करती। विदग्ध = विद्वान्। चतुरा......आकर है = विदुषी स्त्रियों के मुख से व्यंग्य वचनों का निकलना स्वाभाविक ही है।