रण भी जानता हो, छन्दोग्रन्थों का भी पारगामी हो उसे गुरू बनाना चाहिए। अच्छे-अच्छे काव्यों को उसके मुख से सुनना चाहिए। गाथा, प्राकृत तथा अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं के पद्यों का भी सावधान श्रवण करना चाहिए। चमत्कार-पूर्ण उक्तियों के विषय में चर्चा करनी चाहिए। प्रत्येक रस के आस्वादन में तन्मय हो जाना चाहिए। जहाँ जिस गुण का प्रकर्प हो वहाँ अभिनन्दन करके आनन्दित होना चाहिए। विवेक बुद्धि द्वारा भले बुरे काव्य को पहिचानने की चेष्टा करनी चाहिए। ऐसा करते-करते कुछ दिनों में कवित्व-शक्ति अंकुरित हो उठती है और उस शक्ति से सम्पन्न होने पर कविता करने की योग्यता आ जाती है।
कृच्छु-साध्य जनो को चाहिए कि कालिदास आदि सत्कवियों के सारे प्रबन्धों को आद्यन्त पढ़ें और खूब विचार-पूर्वक पढ़ें। इतिहासों का भी अध्ययन करें। तार्किकों की उम्र-सन्धि से दूर ही रहे। कविता के मधुर सौरभ को उससे नष्ट होने से बचाते रहे। अभ्यास के लिए कोई नया पद्य लिखे तो महाकवियों की शैली को र दा व्यान में रक्खें। पुराने कवियो के श्लोकों के पाद, पद और वाक्य आदि को निकाल कर उनकी जगह पर अपने बनाये पाद, पद और वाक्य रक्खे। अभ्यास बढ़ाने के लिए वाक्यार्थ-शून्य पद्य बनावे। कभी-कभी अन्य कवियों की रचना में फेर-फार करके, कुछ अपना कुछ उनका रखकर, नूतन अर्थ का समावेश करने की चेष्टा करें।
जो लोग किसी बड़े रोग से पीड़ित हैं, व्याकरण और तर्क शास्त्रके सतताभ्यास से जिनकी सहृदयता नष्ट होगयी है; अतएव सुकवियों की कविता सुनने से भी जिन्हें कुछ भी आनन्द नहीं प्राप्त होता, उन्हें असाध्य समझना चाहिए। उनका हृदय पत्थर के समान कड़ा होजाता है, उनकी कोमलता बिल्कुल ही जाती रहती है।