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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/३५

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२—कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन
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एक विरहणी अशोक को देख कर कहती है—तुम खूब फूल रहे हो, लताएँ तुम पर बेतरह छाई हुई है, कलियों के गुच्छे सब कहीं लटक रहे हैं, भ्रमर के समूह जहाँ-तहाँ गुञ्जार कर रहे हैं। परन्तु मुझे तुम्हारा यह आडम्बर पसन्द नहीं। इसे हटाओं! मेरा प्रियतम मेरे पास नहीं! अतएव मेरे प्राण कण्ठगत हो रहे है।

इस उक्ति में कोई विशेषता नहीं—इसमें कोई चमत्कार नहीं अतएव इसे काव्य की पदवी नहीं मिल सकती। अब एक चमत्कार-पूर्ण उक्ति सुनिए। कोई वियोगी रक्ताशोक को देख कर कहता है—नवीन पत्तों से तुम रक्त (लाल) हो रहे हो, प्रियतमा के प्रशसनीय गुणों से मैं भी रक्त (अनुरक्त) हूँ। तुम पर शिलीमुख (भ्रमर) आ रहे है, मेरे ऊपर भी मनसिज के धनुष से छूटे हुए शिलीमुख (वाण) आ रहे है। कान्ता के चरणों का स्पर्श तुम्हारे आनन्द को बढ़ाता है; उसके स्पर्श से मुझे भी परमानन्द होता है। अतएव हमारी तुम्हारी दोनों की अवस्था में पूरी-पूरी समता है। भेद यदि कुछ है तो इतना ही कि तुम अशोक हो और मैं सशोक इस उक्ति में सशोक शब्द रखने से विशेष चमत्कार आ गया। उसने 'अनमोल रत्न' का काम किया। यह चमत्कार किसी पिङ्गल पाठ का प्रसाद नहीं और न किसी काव्याङ्ग-विवेचन ग्रन्थ के नियम परिपालन ही का फल है।

उस दिन हम एक महायात्रा में कुछ लोगों के साथ गङ्गा तट तक गये थे। यात्री की मृत्यु पञ्चक में हुई थी। शव चिता पर रखा गया। अग्नि संस्कार के समय एक लकड़ी खिसकी इससे शव का सिर हिल गया। इस पर एक आदमी बोला—लकड़ी खिसकने से सिर हिल गया। यह सुनकर दूसरा बोल उठा—नहीं, नहीं, अमुक चाचा सिर हिलाकर मना कर रहे है कि अग्नि-संस्कार न करो, हम धनिष्ठा-पञ्चक में मरे हैं। यह उक्ति