पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/६१

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४-कवित
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अस जिय जान सुजान-शिरोमनि ।
 
लेइय संग मोहि छॉड़िय जनि ॥
विनती बहुत करौ का स्वामी ।।
 
करुणामय उर अन्तरयामी ।
राखिय अवध जो अवधि लगि, रहित जानिए प्रान ।।
 
दीनवन्धु सुन्दर सुखद, शील-सनेह-निधान ।।
 
मोहि मग चलत न होइहि हारी।
 
क्षण-क्षण चरण-सरोज निहारी ॥
सवहि भॉति प्रिय-सेवा करिहौ ।
 
मारग-र्जनित सकल श्रम हरिहौ ।।
पाँव पखारि वैठि तरु छाही ।
 
करिही वायु मुदित मन माही ॥
श्रमकण सहित श्याम तनु देखे ।
 
कहं दुख समय प्राणपति पेखे ॥
सम महि तृण-तरु-पल्लव डासी।
 
पॉय पलोटिहि सव निशि दासी ॥
वार बार मृदु मूरति जोही ।
 
लागिहि ताति बयारि न मॉही ।।
को प्रभु संग मोहि चितवनि हारा।
 
सिह वधुहि जिमि शशक सियारा॥
मै सुकुमारि नाथ वन-योगू।
 
तुमहि उचित तप मो कहं भोगू।।
ऐसेहु वचन कठोर सुनि, जो न हृदय विलगान ।
 
तो प्रभु विपम वियोग दुख, सहिहैं पामर प्रान ॥
 
अस कहि सीय विकल भई भारी।
 
बचन वियोग न सकी संभारी ॥