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रसज्ञ-रञ्नज
 

है, “सुकवि-सरोज-विकास” में भी नायका भेदही है। नवोढ़ाओ और विश्रब्ध नवोढ़ाओ ही की कृपा से हमारीभाषा की कविता- लता सूखने नही पाई! कविजन अब तक उसे अपने काव्य-रस से बराबर सीच रहे है और मुग्धमति युवक उसकी शीतल छाया मे शयन करके विषयाकृष्ट हो रहे है।

इस निवन्ध का नाम “नायिकाभेद" पड़कर नायिका-भेद 'के भक्तो की यदि यह आशा हुई हो कि इसमें नवोढ़ा के सुरतांत और प्रौढ़ा के पुरुषायित-सम्बन्ध में कोई नवीन युक्ति उन्हे सुनने को मिलेगी तो उनको अवश्य हताश होना पड़ेगा। परन्तु हताश क्यों होना पड़ेगा? आजतक नायिकाआका क्या कुछ कम वर्णन हुआ है? इस चिपय मे, हिन्दी साहित्य से, जो कुछ विद्यारान है उससे भी यदि उनकी काव्य रस पीने की तृषा शान्त न हो तो हम यही कहेंगे कि उनके उदर से बड़वानल ने निवास किया है।

ऋपियो के बनाये हुए संस्कृत-ग्रथो तक मे नायिकाओं के भेद कहे गये है परन्तु पद्माकर और मतिराम आदि के ग्रंथो का जैसा विस्तार वहाँ नही है नायकाओ की भेद भक्ति हमारे यहाँ बहुत प्राचीन काल से चली आई है। कालिदास के काव्यो में भी नायिकाओ के नाम पाये जाते हैं।

निद्रावशेन भवतायनत्र वेक्षमाणा-
 
पय्युत्सुकत्वमवला निशि खण्डितेव ॥
लक्ष्मीविनोदयति येन दिगन्तलम्बी
 
सोऽपि त्वदाननरुचि विजहाति चन्द्र.॥
रघुवंश, सर्व ५।
 

यहाँ खन्डिता नायिका का नाम आया है। संस्कृत में ऐसी अनेक पुस्तके है जिनमे नायिकाओ की विभाग परम्परा और उनके लक्षणो का विवरण है। तथापि हिन्दी पुस्तको की जैसी प्रचुरता तस्कृत मे नहीं है। दशकरपक और साहित्य दर्पण इत्यादि