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नायिका-भेद
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में प्रसङ्ग वश इस विपय का विचार हुआ है, परन्तु वे विचारे -गौण है, मुख्य नहीं। जिसमे केवल नायिकाओ का ही वर्णन हो ऐसो पुस्तक संस्कृत मे एक "रल-मञ्जरी" ही हमारे देखने मे आई है। मिथिला के रहने वाले पाण्डित भानुदत्त ने उसे बनाया है। भानुदत्त के अनुसार नायिकाओ के ११५२ भेद हो सकते है इस पुस्तक मे उन्होने नायिकाओ का यद्यपि वहुत विस्तृत वर्णन किया है तथापि उनका वर्णन संस्कृत मे होने के कारण इतना उद्वेग जनक और हानिकारक नहीं जिना सुरतारम्भ, सुरतान्त और "विपरीत" मे विलग्न होने वाले हमारे हिन्दी कवियाका है। इस 'विषय मे हिन्दी-पुस्तको का प्राचुर्य देखकर यही कहना पड़ता है कि इस अल्पोपयोगी नायिका-भेद मे सस्कृत-कवियों की अपेक्षा हमारी भाषा के कवियो और भापा की क बताओ के प्रेमियो की सविशेप रुचि रहती आई है। नगरोकी वात जाने दीजिये, छोटे- छोटे गांवो तक मे लाठ-साठ वर्ष के बुडो को भी नायिका-सेद की चर्चा करते और ज्ञात-यौवना और अज्ञात यौवना के अन्तर के तारतम्य पर वक्तृता देते हमने अपनी आंखो देखा है।

निश्चयात्मकता से हम यह नहीं कह सकते कि नायिका-भेद की उत्पत्ति कब से हुई और क्यो हुई। वात्सायन मुनि-कृत "कामसूत्र" बहुत प्राचीन ग्रंथ है। उसमें नायिका और नायिकाओ के सामान्य भेद कहे गये हैं। ये भेद वैसे ही है जैसे इस प्रकार की पुस्तको मे हुआ करते है। वह आडम्बर और वह अश्लीलता जो आजकल के नायिका-भेद मे पाया जाता है, वहाँ बिल्कुल नहीं। जान पड़ता है, इसी प्रकार के ग्रन्थ नायिका-भेद की उत्पत्ति के कारण है। सम्भवतः इन्हीं को देखकर नायिकाओ के पक्षपातियो ने इसे पृथक विषय निश्चित करके पृथक् पृथक अनेक ग्रंथ रच डाले और सकडो, नही हजारो, भेद उत्पन्न करके सब रसो के राजा का राज्य-विस्तार बहुत ही विशेष बढ़ा