पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/६९

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५-नायिका-भेद
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भाषाओं में नायिकायो का कही भी उतना साम्नाज्य नही जितना 'हिन्दी मे है । हिन्दी मे इनका आधिक्य क्यो ? जान पड़ता है, और कही भी ठहरने के लिए सुखदाई स्थान न पाकर बेचारे नायिका-भेद ने विवश होकर, हिन्दी का आश्रय लिया है। इस विस्तृत विश्व मे ईश्वर ने इतने प्रकार के मनुष्य, पशु, पक्षी, वन, निर्भर, नदी, तड़ाग आदि निर्माण किये है कि यदि सैकड़ों 'कालिदास उत्पन्न होकर अनन्त काल तक उन सबका वर्णन करते रहें तो भी उनका अन्त न हो। फिर हम नहींजानते और विपयों का छोड़कर नायिका-भेद सदृश अनुचित वर्णन क्यों करना चाहिए? इस प्रकार की कविता करना वाणी की विगर्हणा है।

अब देखिए, इस प्रकार की पुस्तकों मे लिखा क्या रहता हैं। लिखा रहता है परकीया (परस्त्री) और वेश्याओ की चेष्टा और उनके कलुपित कृत्यो के लक्षण और उदाहरण परकीया के अन्त- त अविवाहित कन्याओं के पापाचरण की कथा। पुरुषमात्र में पतिबुद्धि रखने वाली कुलटा स्त्रियों के निर्लज्ज और निरर्गन प्रलाप ।।। और भी अनेक बाते रहती हैं। विरह-निवेदन करने अथवा परस्पर मेल करा देने के लिये दूतों और दूतियों की योजना का वर्णन रहता है,वेश्याओ को बाजार में बिठला कर उनके द्वारा हजारो के हृदय-हरण किये जाने की कथा रहती है परकीयाओ के द्वारा, कबूतर के बच्चे की जैसी कूजित के मिष, पुरुषो में श्राह्वान की कहानी रहती है। कहीं कोई नायिका अँधेरे में यमुना के किनारे दौडी जा रही है; कही कोई चाँदनी में चाँदनी ही के रङ्ग की साड़ी पहनकर घर से निकल, किसी लता-मण्डप में बैठी हुई किसी की मार्ग प्रतीक्षा कर रही है; कहीं कोई अपनी सास को अँधी और अपने पति को विदेश गया बतलाकर द्वार पर आये हुये पथिक को गत भर विश्राम करने के लिए प्रार्थना