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रसज्ञ-रञ्जन
 

हंस देखा। राजा को वह इतना पसन्द आया कि उसने उसे सजीव पकड़ना चाहा। इसलिये उसने अपने निषङ्ग से एक सम्मोहन शर, उसपर चलाने के लिये, निकाला। शर को उसने शरासन पर रक्खा ही था कि उसने एक अलक्षित वाणी सुनी। उस वाणी का मर्म यह था कि-

"हे नरेश, इस पर वाण मत छोड़। यह तेरा अभीष्ट सिद्ध करेगा। तेरे ही रूप-गुण-सम्पदा के अनुरूप यह तुझे एक त्रिभु- वन मोहनी राज-कन्या प्राप्त करा देगा। उसे तू अपनी महिषी बनाना।"

यह सुनकर उस आकर्णकृष्ट वाणको राजा ने उतार लिया।

नल की इस दयालुता पर वह हंस बहुत प्रसन्न हुआ। वह अपना स्थान छोड़कर नल के कुछ निकट आया और वोला- "हे निषधनाथ, ईश्वर तेरा कल्याण करे। तूने मुझ पर दया दिखाई है। इसके बदले में मैं भी तेरी कुछ सेवा करना चाहता हूं। तू मुझे साधारण पक्षी मत समझ। मैं ब्रह्मा के रथ को खींचता हूं, इन्द्र के सिहासन के पास बैठता हूं, जयन्त इत्यादि देव-बालकों के साथ खेलता हूँ, और मन्दाकिनी के किनारे विहार किया करता हूँ, तूने अपने नृपोचित गुणों से इस भूमण्डल को स्वर्गसे भी अधिक सुषमाशाली कर रक्खा है इसलिये कभी-कभी मैं यहां भी घूमने आजाता हूं। मैं चाहता हूंकि जैसे और देवता मुझसे सख्य-भाव रखते हैं वैसे ही तू भी रख।”

नल ने इस बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। आज सेतू मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारा हुआ, यह कह कर राजा ने बड़े ही प्रेम से उस पक्षी के शरीर पर अपना कर-कमल फेरा। कुछ देर तक वे दोनो परस्पर प्रमालाप करते रहे। अनन्तर नल के लिये एक कन्या-रत्न ढ ढ़ने के निमित्त, हंस ने, राजा की