सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६-हंस-संदेश
७५
 

भी कुछ न समझती थी। एक बार उसका गर्व-गर्भित व्यवहार मुझे दुःसह हो उठा इसलिए मैंने उसके गर्व को दूर करना चाहा। मैं एक सर्वाङ्गसुन्दरी रमणी की खोज में निकला। इसमें मैं बहुत दिन तक हैरान रहा। आखिर को मुझे कामयाबी हुई। विदर्भ-देश के राजा भीम की कन्या दमयन्ती को देख कर मैं स्तम्भित हो गया। वैसी सुन्दरी मैंने कभी नहीं देखी थी! उसका चित्र में खींच लाया। उसे देख कर मेरी घरवाली की अकल ठिकाने आ गई। तब से उसका गर्व दूर हो गया और वह मुझे वक्त पर रोटी देने लगी।

एक घण्टे तक, साहित्याचार्य कामेश्वर शास्त्री ने दमयन्ती के रूप का वर्णन किया। उस समय सुरेन्द्र-सभा में अनेक सुन्दरियाँ बैठी हुई थी। दमयन्ती का नखशिख-वर्णन सुन कर उनकी अजीब हालत हुई। वे एक-दूसरे का मुँह ताकने लगी। तिलोत्तमा का चेहरा काले तिल के समान काला पड़ गया। मदालसा का सौन्दर्य-मद उतर गया। सुलोचना ने अपने लोचन बन्द कर लिए। सुमध्यमा सखियों के मध्य में छिप गई। मेनका का मन मलिन हो गया। कलावती अपनी कलाओं को भूत गई। सुविभ्रमा का विभ्रम भ्रम में पड़ गया। शशिप्रभा निस्तम्भ हो गई और चित्र-लेखा चित्र के समान बैठी रह गई।

शास्त्रीजी की बात सुन कर मैं बहुत खुश हुआ। मैं वहाँ से फौरन ही उड़ा। कोई दो घण्टे में विदर्भपुरी में दाखिल हुआ। वहाँ मैं दमयन्ती के प्राङ्गण में पहुँचा। उस जगह एक हौज था। उसमें एक फब्बारा था। उसको चोटी पर मैं जा बैठा। कुछ देर में मुझे वहाँ दमयन्ती देख पड़ी। उसके रूप को देख कर मैं अचरज में पड़ गया। मित्र, इसके पहले मैने वैसी सुन्दरी कहीं न देखी थी। रूप-वर्णन में शास्त्रीजी की जड़ता का मुझे तब