ठेठ अमरावती की राह ली। वहाँ पर भी मैने एक-एक घर ढूँढ़ डाला। जिस पर भी मेरा काम न हुआ। मेरे चेहरे पर उदासी छा गई। मैं डरा, मुझे यह विश्वास होने लगा कि मेरी प्रतिज्ञा भङ्ग हो जायगी। मैं अपना प्रण पालन न कर सकूँगा, मुझे तेरे लायक कोई कामिनी न मिलेगी। जब अमरावती ही में नहीं, तब उसके होने की और कहाँ सम्भावना हो सकती है? इसी सोच विचार में मेरे मिनट, घन्टे और दिन जाने लगे। एक दिन मेरा जी बहुत ऊबा। इसलिये मैं देवराजकी सभा में गया। मैंने कहा चलों वही चलकर कुछ देर जी बहलावे।
वहाँ मैने देखा कि सब देवता यथास्थान बैठे हैं। साहित्य-शास्त्री देवता, महाराजा अयोध्या के रसकुसुमाकर पर वाद-विवाद कर रहे हैं। कोई इस नायिका मे दोष निकाल रहा है, कोई उसमें। कोई कहता है, रूप नही अच्छा; कोई कहता है भाव नही अच्छा। इसी तरह लोग अपनी-अपनी हाँक रहे हैं। इस खींचा-तानी को देख कर सुरेन्द्र ने कामेश्वर शास्त्री की तरफ देखा। इन शास्त्री महाराज का जन्म सृष्टि के आदि का है। पर इतने बूढ़े हो जाने पर भी नायिकाओं के गुण-दोष की पहचान में आप अपना सानी नहीं रखते। यही समझ कर सुरेन्द्र महाराज ने आज्ञा दी कि शास्त्रीजी अब आप भी कुछ कहिए, आपकी राय में कौन रमणी सब से अधिक रूपवती है?
कामेश्वरजी ने सुरेश्वर की आज्ञा सिर पर रक्खी। अपनी पगड़ी के ढीले पेंचों को उन्होंने कड़ा किया। फिर उन्होंने वक्तता आरम्भ की। आप बोले—
अमरराज, इनमें से एक भी नायिका मुझे अच्छी नहीं जँचती। सब में कोई न कोई दोष है। मेरी गृहिणी को यह घमंड था कि मैं बहुत ही रूपवती हूँ। इससे वह कभी-कभी मुझे