पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/७९

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-६-हंस-सन्देश
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इस प्रकार दुर्निवार ताप से तरी हुई उस वाला को देख मुझे दया आई। मैं धीरे-धीरे उसके पास गया और अपने पंखों से उस पर हवा करने लगा। मुझे इस तरह अपनी सेवा करते देख उसने अपनी दृष्टि मेरी तरफ फेरी। तब, अवसर पाकर,'मैने उससे कहा-

"तरुणि, जिस तरुण का तू चिन्तन करती है वह धन्य है उसके पुण्य की सीमा नही। जो युवा तुझसे प्रेम-बन्धन करने की 'अभिलाषा रखते है उनको मैं त्रिभुवन मे सबसे बडा भाग्य- शाली समझता हूँ। सुन्दरि, सुरेन्द्र के समान देवता भी तुझे पाने की कामना करते हैं। तव यदि, मनुष्यो मे तेरा प्रार्थित तरुण तुझे न मिले, तो बड़े आश्चर्य की बात है। तेरे स्मरणके कारण, मन्दार-मालाओ से अलंकृत मणि-मन्दिरो मे इन्द्राणी के साथ वात-चीत करना भी इन्द्र को अच्छा नहीं लगता। क्षीर-सागरके ठीक बीच में रहकर भी, और रौकड़ो नदियो के द्वारा चरण- स्पर्श किये जाने पर भी तेरे सोच से, वारिपति वरुण को ज्वर चढ़ रहा है। तेरे कारण पञ्चसर से पीडित किया गया कुबेर अांखे बन्द करके चन्द्रमौलि के पास से हटकर, उनकी सखियों के पास चला जाता है। चन्द्रचूड की चूड़ा के चन्द्रमा को किरणे उससे नही सही जाती। तेरे त्रैलोक्य-मोहक तनु को देखकर भगवान अरविन्द-बन्धु (सूर्य) को रागान्ध रोग होगया है। इसी से पृथ्वीके चारो ओर व दिन-रात गता-गत किया करते हैं गिरिजा को गिरीश के वाम भाग में बैठी हुई देखकर यदि तुझे स्पर्धा उत्पन्न हुई हो तो साफ-साफ मुझसे तू वैसा कहदे। मै तुझे बहुत जल्द उनके दाहिने भाग मे विठला दू। अधिक कहना सुनना मैं व्यर्थ समझता हूँ। यदि तू कहे तो मै तुझे लेकर दूसरी लक्ष्मी के समान, नारायण के अङ्क में अभी बिठला आऊं। मैंने तेरे सामने बहुत से देवताओं के नाम लिये। त्रिलोकी में