खिलता; पर सूर्य का वह परम भक्त है। इनमें से दो एक बातें तो निसंदेह सही हैं; पर औरों के विषय में मतभेद हैं। उदाहरण के लिए हंस और उसके नीर-क्षीर-विषयक विवेक को लीजिए।
संस्कृत काव्यों में जगह-जगह पर यह लिखा हुआ है कि हंस में यह शक्ति है कि वह दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है। पर दूध और पानी को अलग-अलग करते उसे किसी ने नहीं देखा। शायद किसी ने देखा भी हो, पर इस विषय का कोई लेख कही नहीं मिलता। यह प्रवाद सात समुद्र पार करके अमेरिका पहुँचा। वहाँ के विद्वानों को हंस का यह अद्भुत गुण सुन कर आश्चर्य हुआ। पर वे लोग ऐसी ऐसी बातों को चुपचाप मान लेने वाले नहीं। इस देश में हंस-विषयक यह प्रवाद हजारों वर्षों से सुना जाता है। पर इसके सत्यासत्य को जाँच आज तक किसी ने नहीं की। यदि किसी ने की भी हो तो उसका फल कही लिपिबद्ध नहीं मिलता। अमेरिका में हवार्ड नाम का एक विश्व विद्यालय है। उसमें लांगमैन साहब एक अध्यापक हैं। आपने हंस के इस आलौकिक गुण की परीक्षा का प्रण किया। इसलिए आपने कई हंस मँगा कर पाले और अनेक तरह से उनकी परीक्षा की। पर नीर का क्षीर से अलग करने मे उन्होंने हंस को असमर्थ पाया, तो हंस के नीर-क्षीर-विवेक-विषयक वाक्यों की क्या संगति हो? इस विषय के दो-चार वाक्य सुनिए—
नीर-क्षीर-विवेके हस्यालस्यं त्वमेव तनुपे चेत्।
विश्वास्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः॥
—भामिनीविलास।
हे हंस, यदि क्षीर को नीर से अलग कर देने का विवेक तू