के कारण कठोर और कर्कश होता है—पर नहीं,आपका काव्य पढ़ने से तो यही जान पड़ता है कि आप कठोरता प्रेमी नहीं। भवतु नाम। हम इस उपेक्षा का एक मात्र कारण भगवती ऊर्म्मिला का भाग्यदोष ही समझते हैं। हा हतविधिलसते! परमकारूणिकेन मुनिना वाल्मीकिनापि विस्मृतासि।
हाय वाल्मीकि! जनकपुर मे तुम ऊर्म्मिला को सिर्फ एक बार, वैवाहिक-वधू-वेश में, दिखा कर चुप हो बैठे। अयोध्या आने पर सुसराल में उसकी सुधि यदि आपको न आई थी तो न सही पर, क्या लक्ष्मण के वन-प्रयाण-समय में भी उसके दुःखाश्रुमोचन करना आपको उचित न जँचा? रामचन्द्र के राज्यभिषेक की जब तैयारियाँ हो रही थीं, जब राजान्तःपुर ही क्यों, सारा नगर नन्दन-वन बन रहा था, उस समय नवला ऊर्म्मिला कितनी खुशी मना रही थी, सो क्या आपने नहीं देखा? अपने पति के परमाराध्य राम को राज्य-सिंहासन पर आसीन देख ऊर्म्मिला को कितना आनन्द होता, इसका अनुमान क्या आपने नहीं किया? हाय! वही ऊर्म्मिला एक घंटे बाद, राम-जानकी के साथ, निज पति को १४ वर्ष के लिए बन जाते हुए देख, छिन्नमूल शाखा की तरह राज-सदन की एक एकान्त कोठरी में भूमि पर लोटती हुई क्या आपके नयनगोचर नही हुई? फिर भी उसके लिए आपकी "बचने दरिद्रता" ऊर्म्मिला वैदेही की छोटी बहिन थी। सो उसे बहिन का वियोग सहना पड़ा और प्राणाधार पति का भी वियोग सहना पड़ा। पर इतनी घोर दुःखिनी होने पर भी आपने दया न दिखाई। चलते समय लक्ष्मण को उसे एक बार आँख भर देख भी न लेने दिया! जिस दिन राम और लक्ष्मण, सीतादेवी के साथ, चलने लगे—जिस दिन उन्होंने अपने पुरत्याग से अयोध्या नगरी को अन्धकार में, नगरवासियों को दुःखोदधि में और पिता को मृत्यु-मुख में निपतित किया, उस दिन भी आपको