पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/९९

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९-नल का दुस्तर दूत-कार्य
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पर वह बैठ गया। इस समय नल हृदयगत धैर्य और मनोभाव में युद्ध ठन गया। जीत धैर्य्य ही की हुई। सनोभाव ने हार खाई। उसकी एक न चली। विकारो की उत्पादक प्रबल सामग्री के उपस्थित होने पर भी यदि महात्माओं का मन कलुषित हो जाय तो फिर वे महात्मा हो कैसे-

दमयन्ती ने नल से जो प्रश्न किए उनमें से एक को छोड़कर और सत्र प्रश्न नल हजम कर गये। आपले अरती कथा का आरम्म इस प्रकार किया-

मैं दिशाओं के अधिपतियों की समाने तुम्हारे ही पास अतिधि होकर धाया हूँ। साथ ही अपने प्रमुखों के सुन्दंश, बड़े आदर के साथ, अपने हृदय में प्राणों की तरह धारण करके लाया हूं। मेरा आतिथ्य-सत्कार हो चुका। वस अत्र और अधिक,परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं। बैठ क्यो नही जाती? आसन क्यो छोड़ दिया? दूत बन कर मैं जिस काम के लिये आया हूं उसे यदि तुम सफल कर दोगी तो मैं उसी को अपना बहुत बड़ा आतिथ्य समकूँगा। हे कल्याणि! चित्त तो तुम्हारा प्रसन्न है? शरीर तो सुखी है? विलम्ब करने का यह समय नहीं। इससे जो कुछ मैं निवेदन करने जाता हूं उसे कृपा करके सुनो। मेरा निवेदन यह है।

जब से तुम्हारी कुमारावस्था का प्रारम्भ हुआ तभी से तुम्हारे गुणों ने इन्द्र, वरुण, यम, कुवेर के हृदय पर अधिकार कर लिया है। तुम्हारे शैशव और यौवन की सन्धि से सम्बन्ध रखने वाली बातों का विचार करके इन शिकानों का चित्त प्रति-दिन अधिकाधिक खिन्न हो रहा है। दो राजों के राज्य मे जो दशा प्रजा की होती है वही दशा इस समय इन देवताओ की हो रही है। पञ्चशायकरूपी चोर ने इनके धैय्यरूपी सारे धन का अपहरण कर लिया है।