पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१०४

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चतुर्थ प्रभाव १०५ बातक सी बानी महि, भाव सी भवानी माँह, केसौदास रति में रतीक ज्योति जानिबी ।१४। शब्दार्थ-पदवी - उच्चता । एको विसौ = थोडा भी । उरवसी = स्वर्ग की एक अप्सरा । उर में न आनिबी = उसके उर की बराबरी के ध्यान में नहीं चढ़ती। पुलोमजा = इंद्राणी | तिलोत्तमा = एक अप्सरा। जानु .. पहिचानिबी = यदि उसे पहचान लूगा तो अपने जीवन को बचा समझगा (तभी जान में जान पाएगी। बातक = बात ही बात । भाव = भावना,कल्पना। भावार्थ-(नायक उक्ति सम्खी से ) नख और पद की उच्चता का पद द्रौपदी नहीं प्राप्त कर सकती, उर की समता के लिए उर्वशी मन में नहीं लाई जा सकती। उसके रंएँ की ममता पुलोमजा ( इंद्राणी ) से नहीं हो सकती, उसके तिल की समता में तिलोत्तमा कुछ नहीं है। उसके मैल के • समान भी मेनका अप्सरा नहीं मानी जा सकती । न जाने वह किस जाति की ( सुर नर आदि में से ) है। अभी वह मुझे सोते से जगाकर चली जा रही हैं । अगर उसे पहचान सभा ( वह मिल गई ) तभी मैं अपने प्राणों को बचा समदूंगा। यही नहीं फिर तो मैं यही समझूगा कि सरस्वती में छटा की बात ही बात है, पार्वती में शोभा की कल्पना ही कल्पना है और रति में भी रत्ती भर ही ज्योति है। अलंकार-प्रतीप। सूचना-(१) यहां केवल वर्णमैत्री के लिए उर्वशी, तिलोत्तमा आदि उपमानों का नाम लिया गया है, किसी विशेष प्रसिद्धि के कारण नहीं। (२) इसके बाद मुद्रित प्रतियों में निम्नलिखित दो दोहे भी मिलते हैं जो 'केमवदाम' के नहीं माने गए हैं--- भूल होइ जिहि बात की, बिन देखत ही पीव । सखो सुनावै गुन स्रवन, अंग अंग सब जीव ।१। सील रूप गुन समुझि कै, सखी सुनावै प्रान । केसव ताको कहत हैं. दर्सन स्रवन बखानि ।। श्री राधिकाजू को प्रच्छन्न श्रवणदर्शन, यथा--( सवैया । (१३५) सौंहैं दिवाय दिवाय सखी इक बारक काननि श्रानि बसाए । जाने को केसव कानन तें कित है कब नैननि माँझ सिधाए । लाज के साज धरेई रहे सब नैननि ले मनहीं सों मिलाए । कैसी करौं अब क्यों निकसैं री हरेंई हरें हिय में हरि आए।१५॥ १४-द्रौपदी-पधिनी। जोवन०-जान जानिहीं जो जाहि केहूँ। बातक सी-बात कैसी। भाव सी-भाव सो। १५-कब-- ब-हरि । सब--तब । 1