पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१०५

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रसिकप्रिया शब्दार्थ-सौहैं दिवाय० = शपथें दिला दिलाकर । इक बारक-सिर्फ एक बार । काननि० = कानों में ला बसाया । नैननि = नेत्रों ने । हरेई हरें- धीरे धीरे । श्रीराधिकाजू को प्रकाश श्रवणदर्शन, यथा-( कबित्त ) (११६) को लौं पीहौ कानरस, रूप की बुझैहै प्यास, केसौदास कैसें न नयन भरि पीजिये। बीर की सौं मेरी बीर बारी है जु वारौं आनि, नेक किन हसहि · बलाय तेरी लीजिये। बरसक माँहि यह बैस अलबेली बीतें, दैही सुख सखिन क्यौं अबहीं न दीजिये । एरी लड़बावरी अहीरी ऐसी बूझै तोहि, नाह सों सनेह कीजै नाह सों न कीजिये ।१६। शब्दार्थ-कौ लौं-कब तक । रस - आनंद; पानी। बीर=सखी। बीर = संबोधन । बारी-बालिका, छोटी। वारी आनि आकर निछावर होती हूँ । नेक = जरा। लड़बावरी-प्रेम में पागल, अनाड़ी। बूझै= समझ में आता है, मन में बात उठती है । नाह-नाथ, पति । नाह = नहीं । भावार्थ-(बहिरंग सखी की उक्ति नायिका से) तू कब तक कान से रस (प्रियगुणश्रवण) का पान करती रहेगी, क्या इसी से रूपदर्शन की प्यास बुझ जाएगी? यदि नेत्र भर पिया न गया तो पीने ही से क्या ? तेरी शपथ मेरी प्यारी, क्या तू छोटी है (जो इस तरह की बातें कह रही है ) ? मैं आकर तुझ पर निछावर हो रही हूँ, जरा हँस तो दे मैं तेरी बला लेती हूँ। हाँ तो कर दे। कोई वर्ष भर में यह अवस्था निकल जायगी तब सखियों को क्या सुख दे सकेगी ? इसलिए ऐ अलबेली, अभी यह सुख क्यों नहीं देती ? (प्रिय से मिल, जिससे सखियों को पुरस्कार आदि की प्राप्ति हो ) हे प्रेमपगली महीरी, तेरे बारे में यह बात ( शिक्षा ) मन में आती है कि तू प्रिय से प्रेम कर, 'नहीं' से प्रेम मत कर । अलंकार-विरोधाभास (अंत में)। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न श्रवणदर्शन, यथा-(कबित्त) (१३७) लंघतु है लोक, लोकलीक न उलंघी जात, सबही तूं समझावै तोहि समझावै को । १६-कैसे-कैसो । न नयन-जो न नैन, नयननि । पीजिये-पीजई, लोनजई प्रादि । है-हो। वारौं-वारी। किन हसहि-हँसि कहिहो, हँसि हो करि । माहि-मांझ । बूझ-बूझौं ।