पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०८ रसिकप्रिया ? वर्षण करनेवाला, कृष्ण को आकृष्ट करनेवाला है, इसे सब जग (लोग) जान गया है । यह पृथ्वी में मोहनी ( विद्या ) के लिए भूषण ( अनुकूल) है या व्रजबालाओं के लिए दूषण (विपरीत ) है ? इसके सुनते ही घर छूट गया है और श्याम वन वन घूम रहे हैं यह तेरा नाम है या उच्चाटन मंत्र ? सूचना-राधिका के नाम और उच्चाटन मंत्र दोनो पर विशेषण घटित होंगे। (दोहा) (१३६) दरस रमन रमनीनि के, कहे परम रमनीय । प्रगटन प्रेम प्रभाव अब, कहाँ कछू कमनीय ।१।। इति श्रीमन्मन्महाराजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां चतुर्विध- दर्शनप्रच्छन्नप्रकाशवर्णनं नाम चतुर्थः प्रभावः ॥४॥ पंचम प्रभाव अथ दंपति-चेष्टा-वर्णन-(दोहा) (१४०) तिनके चित की जानि सखि, पिय सों कहै सुनाय । कहै सखी सों प्रीतमै, आपुन तें अकुलाइ।११ श्रीराधिकाजू की सखी को बचन कृष्ण प्रति-( सवैया ) (१४१) काल्हि की ग्वालि तो अाजहू लौं न सँभारति केसव कैसेहूँ देहै सीरी कै जाति, उठे कबहूँ जरि जीव रह्यौ कै रही रुचि-रेहै । कोरि बिचार बिचारति है उपचारनि के बरसँ सखि मेहै। कान्ह बुरौ जिन मानौ तिहारी बिलोकनि में बिस बीस बिसै है।। शब्दार्थ-ग्वालि-गोपिका । देहै = शरीर को । रुचि = चमक, कांति ।

रेखा ही। रही रुचि-रेहै = कांति की रेखामात्र रह गई। कोरि

करोड़ । मेहै-मेघ ही। बिस = विष । भावार्थ-हे कृष्ण, आपने जिस गोपिका को कल देखा था वह आज तक भी किसी प्रकार अपने शरीर को सँभाल नहीं पा रही है । कभी वह ठंढी पड़ जात है और कभी जल उठती है। पता नहीं चलता कि उसके शरीर में प्राण हैं या वह कांति की रेखा मात्र ही रह गई है (प्राण उड़ गए हैं ) । सखियां उसको होश में लाने के लिए करोड़ों उपाय सोचती हैं, वे उपचार की वर्षा कर रही हैं (अत्यधिक उपचार कर रही हैं ) फिर भी वह होश में नहीं पा रही है। बुरा मत मानिएगा (मुझे ऐसा जान पड़ता है कि) मापकी १६-दरस०-दर्सनरस रमनीब के ।१-तिन-तिय । २-रह्यो-यो है के।