पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३७

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षष्ठ प्रभाव १३४ उझके ( लालायित ) रहते हैं तथा भड़के हुए हृदय में फूले घूमते हैं ( उसी के ध्यान में लीन रहते हैं )। भला आप किसके रस (प्रेम ) में भूले हुए (मग्न ) हैं । (क्या और) सब ( गोपियों ) की सुंदरता विषवत् हो गई है ? अलंकार-प्रथम समुच्चय । सूचना-किसी ओर न देखने से 'श्रम', 'हास-विलास' से 'स्मित', 'झुकौ' से 'रोष', 'उझको' से 'अभिलाष', 'बिझुकौ' से 'भय', 'फूले' से 'हर्ष' और 'रूप बिष ऐसे भए' से 'गर्व' भाव व्यक्त होता है । अथ विब्बोक हाव-लक्षण-(दोहा) (२२२ रूप प्रेम के गर्व तें, कपट अनादर होइ। तहँ उपजत बिब्बोक रस, यह जानत सब कोइ ।४२। शब्दार्थ --कपट अनादर - दिखावटी अपमान । रसपानंद । श्रीराधिकाजू को बिब्बोक हाव, यथा-( सवैया ) (२२३) आवत जानि के सोइ रही हरएँ हरि बैठे न जानि जगाई। साहस के उरु माँझ धरयो कर जागत रोम की रोंचि जनाई। नीबी बिमोचत चौंकि उठी पहिचानि झुकी बतियाँ कहि बाई । बासर गाइ गँवार चरावत आवत हैं निसि सेज पराई ।४३। शब्दार्थ-हरएँ = धीरे धीरे। उरु = जाँघ । कर = हार । जागत = उठते हुए। रोंचि ( रुचि ) = दीप्ति । नीबी = फुफुदी । झुकी = रोषयुक्त हुई। बाई = बाई ( वायु ) विकार से ग्रस्त व्यक्ति की भांति । गाइ = गाय । गँवार = मूर्ख, असभ्य । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे सखी, आज राधिका श्रीकृष्ण को आता जानकर सो गई। वे भी पास जाकर चुपचाप धीरे से बैठ गए, जान बूझकर जगाया नहीं ! फिर साहस करके उन्होंने जांघ पर हाथ रखा । ( ऐसा करने से ) उसके उठते हुए रोगों में दीप्ति उत्पन्न हो गई ( उसका जगते रहना प्रकट हो गया )। ( सात्त्विक भाव हुआ जान ) श्रीकृष्ण नीबी खोलने लगे, उनके ऐसा करने पर राधिका चौंक पड़ी और श्रीकृष्ण को पह- घानती हुई रुष्ट सी हुई। वायुविकार से ग्रस्त की भांति बातें करने लगी कि दिन में तो गँवार गाय चराते हैं और रात में दूसरे की (स्त्री की ) शय्या पर 'सोने आते हैं' (दिन भर तो न जाने कहाँ रहे इस समय आए हैं---प्रेमगर्व)। श्रीकृष्णजू को बिब्बोक हाव, यथा-( सवैया ) (२२४) एक समै इक गोपी सों केसव कैसहुँ हाँसी की बात कही। 'जा कहँ तात दुई तजि ताहि कहा हम सों रस-रीति नही' । ४२. रूप०-किए गर्व तें मान अति । जाने-जानत । ४३-बैठे-बैठि, जाने । उरु-उर । मांझ-मध्य । कहि बाई-करवाई।