१५० रसिकप्रिया 1 केसौदास सब छाडि कियो हठ ही सों हेत, वाहू छोडि जिय जिये विन कहा जात है। ऐसे प्यारे पीय ही सों मान्यो न मनायो तब, ऐसी तोहि बूझियै जु पाछे पछितात है ।१४। शब्दार्थ-बालिस = (सं० बालिश) मूर्ख । ज्यों = भाँति । कह = क्यों। बिललातु है - व्याकुल होता है । पाहन = ( पाषाण) पत्थर । तें से ( भी अधिक)। पीन=मोटा, कठोर । माखन सो = मक्खन की भाँति मृदु । हेत प्रेम, संबंध । जिय = हे मन । जिए बिन जीते रहे बिना, अब जाओगे कहाँ, तुम्हें जीते रहना ही पड़ेगा, मरने चले हो तो मर भी न सकोगे। ऐसी० क्या तुझे ऐसा करना चाहिए था कि तू पीछे पछताए ? प्रकाश अभिसंधिता, यथा-( सवैया ) (२५२) पाइ परेहू तें प्रीतम त्यौं कहि केसव क्योंहूँ न मैं दृग दीनी तेरी सखी सिख सीखी न एकहूँ रोष ही की सिख सीखि जु लीनी ॥ चंदन चंद समीर सरोज जरै दुख, देह भई सुखहीनी। मैं उलटी जु करी बिधि मो कहँ न्यायनहीं उलटी विधि कीनी ॥१५॥ शब्दार्थ-पाइ० = पैर पड़ने पर भी । त्यौं = और । हग दीनी = देखा। सिख - शिक्षा। रोष=क्रोध । समीर-वायु । बिधि-ढंग, तरीका। न्यायनहीं-न्यायानुसार ही, ठीक ही। बिधि = ब्रह्मा। उलटो = विपरीत, प्रतिकूल । बिधि = रीति । कीनी = की। अथ खंडिता-लक्षण-(दोहा ) (२५३) आवन कहि आवै नहीं, आवै प्रीतम प्रात । जाके घर सो खंडिता कहै जु बहु बिधि बात ।१६। प्रच्छन्न खंडिता, यथा-( कबित्त ) (२५४) आँखनि जौ सूझत न काननि तौ सुनियत, केसौदास जैसे तुम लोकनि में गाए हौ। बंस की बिसारी सुधिकाक ज्यों चुनत फिरौ, जूठे सीठे सीथ सठ-ईठ ढीठ ठाए हौ। दूरि दूरि करतहूँ दौरि दौरि गहौ पाइ, जानौ न कुठौरु ठौरु जानि जिय पाए हौ । १४-जब-जनु । न बालिस०-नाहिं बालिस तू । परे०-परे पाइ तित्यो, पांह परे त्यों त्यों । सो-त्यों । कियो कीनौ। प्यारे-प्यारी । पीय०- पियहि सों, पोउहूं को, पीय हो तो। बूझिय-पूछिये । जु-तू । पाछे-पीछे । १५-ते-न । क्यों हूँ न-कैसहूँ। एकहूँ-एक ए। १६-जाके-ताके । घर-घर । जु-सु । जु०-रोष सों बात ।
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