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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१४८

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सप्तम प्रभाव १५१ काको घर घालिबे कौं बसे कहाँ घनस्याम, घूघू ज्यौं घुसन प्रात मेरे गृह आए हौ ।१७। शब्दार्थ-सीठे=निस्सार वस्तु, किसी वस्तु का तत्त्व निकाल लेने पर जो अवशिष्ट रहे। सीथ = करण, भात का दाना । सठ-ईठ शठ को इष्ट, शठ की तरह । ठाए हो-हो गए हो । घूघु = घुग्घू, उलूक, उल्लू । भावार्थ-( नायिका की उक्ति नायक से ) यदि मेरी आँखों को (तुम्हारे कथनानुसार ठीक ठीक ) दिखाई नहीं देता तो कानों से तो वे सब बातें सुनती ही हूँ जिनमें दुनिया तुम्हारे गीत गाती है। आपने कुल का ध्यान छोड़ दिया है। कौए की तरह उच्छिष्ट और निस्सार अन्नकरण चुगते फिरते हैं । आप तो शठों की तरह धृष्ट हो गए हैं। 'दूर रहो दूर रहो' कहते रहने पर भी दौड़ दौड़कर मेरे पैर क्यों पकड़ते हैं ? आप ठौर कुठौर तो कुछ समझते नहीं, मैंने आपको भली भांति पहचान लिया है। कहिए किसका घर घालने के लिए रात में कहां बसे रहे ? अब घुग्घू की भांति ( दूसरे का घर घालकर ) मेरे घर में प्रातःकाल घुसने चले हैं। प्रकाश खंडिता, यथा-( सवैया) (२५५) आजु कळू अँखियाँ हरि और सी मानो महावर माहँ रँगी हैं। मोहन मोही सी लागति मोहिं इते पर मोहन मोह लगी हैं। मेरी सौं मो सहुँ भानहु बेगि हिये रसरोष की रीति जगी हैं । मेरे बियोग के तेज तची किधौं केसव काहू के प्रेम पगी हैं ।१८) शब्दार्थ-और सी = और ही प्रकार की। मोहन = हे मोहन । मोही सी = मुग्ध हुई सी । मोहिं = मुझे। मोहन मोह० = मोहनेवाले मोह से युक्त, अत्यंत आकर्षक भाव से युक्त हैं। मो सहुँ = मुझसे । भानहु = बताइए। तेज = अग्नि । तची = पकी हैं। भावार्थ-( नायिका की उक्ति नायक प्रति ) हे कृष्ण, आज आपकी आँखें कुछ और ही प्रकार की हैं। मानो महावर ( के रंग ) में रंगी हुई हैं। हे मोहन, मुझे तो ये मोह ली गई सी जान पड़ती हैं, फिर भी ये मुझे मोहक भाव से युक्त जान पड़ रही हैं। मेरी शपथ, आप शीघ्र मुझसे यह रहस्य बताएँ क्योंकि मेरे मन में विपरीत भावों की स्थिति एक साथ ही दिखाई पड़ रही है-रस (प्रेम ) की भी और रोष की भी। यदि ये प्रांखें मेरे वियोग की अग्नि से तपकर लाल हुई हैं ( तव तो रस की स्थिति ठीक ही है ) और यदि ये किसी दूसरी नायिका के प्रेम ( लाल रंग ) में पागकर लाल हुई हैं तो रोष की स्थिति स्पष्ट है । १७-तौं-तें । केसौदास-केसोराइ । लोकनि०-लोक महि, लोक माँझ । फिरौ-फिरै ! ज्यों-की । गृह-घर । १८-माह-रंग मो सहुँ-मोहूँ सों।