पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१५५

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रसिकप्रिया गहना । उरज = स्तन । उजारि के = उजाडवाले, कंटकबिद्ध । सारु = तात्विक साधना। भावार्थ-(सखी की उक्ति सखी से) पैरों में सर्प उलझ जाते हैं, उनके फण कुचल जाते हैं। अनेक निशाचर चारो दिशाओं में उसे देख रहे हैं । मूसलाधार पानी बरस रहा है, पर वह उसे कुछ नहीं गिनती। झींगुरों का शोर भी वह नहीं सुनती । जलधारा की प्रचंड ध्वनि भी उसे सुनाई नहीं पड़ती । गहनों के गिरने का भी उसे पता नही चलता । काँटों से फंसकर वस्त्र का फटना और छाती पर के स्तनों का कष्ट पाना भी उसे ज्ञात नहीं होता । प्रेतों की स्त्रियाँ उसकी इस एकाग्रता को देखकर पूछती हैं कि ऐ अभिसारिके तूने योग-साधना के तत्व से पूर्ण येह अभिसार किससे सीखा है ? प्रकाश कामाभिसारिका, यथा-( सवैया ) (२६६) गोप षड़े बड़े बैठे अथाइन केसव कोटि सभा अवगाहीं। खेलत बालकजाल गलीन में बाल बिलोकि बिलोकि विकाहीं। श्रावति जाति लुगाईं चहूँ दिसि चूँघट में पहिचाननि छाहीं। चंद सो आनन काढ़ि कहा चली'सूझत है कछु तोहि कि नाही।३२ शब्दार्थ-प्रथाई = बैठक, गोष्ठी। अवगाहीं = कर चुके हैं, थहा चुके हैं अर्थात् सभा में प्रवीण हैं । जाल = समूह । बाल = नवयुवती । बिकाहीं। मुग्ध हो जाती हैं । लुगाई = स्त्रियाँ । छाही = छाया। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका प्रति ) तू (इस समय) चंद्र-समान मुख खोले कहाँ जा रही है ? तुझे कुछ दिखाई देता है या नहीं ? बड़े बड़े ( वयोवृद्ध ) गोप बैठकों में बैठे हैं । ऐसे गोप जिन्होंने करोड़ो ( अनेक ) सभाएं की हैं । गलियों में बालकों का समूह खेल रहा है, जिन्हें देख देखकर बालाएं मोहित हो जाती हैं । चारो ओर स्त्रियां पा जा रही हैं । ऐसी स्त्रियां जो घूघट के भीतर की भी छाया पहचान लेती हैं। (फिर भी तू निर्भय चली जा रही हैं ! )। (२७०) केसवदास सुतीन विधि, बरनि स्वकीया नारि । परकीया द्वै भाँति पुनि, आठ आठ अनुहारि ॥३३॥ (२७१) उत्तम मध्यम अधम अरु, तीन तीन बिधि जान । प्रकट तीन से साठ तिय, केसवदास बखान ३४॥ सूचना-स्वकीयादि ३४ पद्मिनी आदि ४ = (१२ + परकीयार + सामान्य १% १५) स्वाधीनपतिकादि ८% १२०४ उत्तमादि ३ = सब ३६० । ३२-कोटि-कोरि । ३३-सु-रु ।