पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१६२

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अष्टम प्रभाव का परिणाम यह होगा कि मैं दिन प्रतिदिन दुःख ही पाऊँगी। मैं तो अपने इ हृदय में ही उनके शरीर को देख लेती हूँ। यदि उन्हें देखुगी तो अधिकाधिक देखने लगूगी। इस प्रकार मैं उनके शरीर को छिपकर ही देखुगी ( उनके रूप का ध्यान यहीं एकांत में कर लूगी )। अपनी देह तक मैं उन्हें न देखने दूगीं। तू जो मुझे देखने के लिए फुसला रही है, मानो तेरे फुसलाने से मैं अब कुछ उन्हें देख ही लंगी ( बड़ी दिखानेवाली आई है, जा तेरे दिखाने से तो मैं देखने से रही ! )। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न अभिलाष, यथा -( सवैया) (२६४) पाइ परौं बलि जाउँ मनोहर आपुन सी न करौ अब ताहू । देखें अघात नहीं दिन के फिरि बारक लैंौं अनदेखें ही जाहू । मो सों कही सु कही अब केसव कैसहुँ कान्ह पत्याव न काहू । डाढ़हुगे जु कहूँक इति रुचि तातो है नेक सिराइ धौं खाहू !१३। शब्दार्थ-मनोहर = मन को हरनेवाले (श्रीकृष्ण)। पापुन सी = अपने समान बदनाम । ताहू = उसे ( नायिका को) भी। अघात नहीं = तृप्त नहीं होते । दिन के दिन भर के समय में। बारक लौं = कई दिनों तक । पत्याव न काहू = किसी का ऐसा विश्वास मत करना। डाढ़हुगे = जलोगे । कहूँक = कहीं । रुचि = लालसा। तातो = गरम । नेक - जरा। सिराइ धौं खाहु - कुछ ठंढा करके खायो । धौं = तो। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक प्रति ) हे मनमोहन, आपने मुझसे जो कहा सो कहा अब और किसी का विश्वास करके ऐसा मत कहिएगा। मैं प्रापके पैरों पड़ती हूँ और बलिहारी जाती हूँ। अब उसे ( नायिका को) भी अपना सा मत बना डालिए । जव उसे दिनदिन भर देखकर आपकी तृप्ति नहीं होती तो कहीं फिर कई दिनों तक बिना देखे ही न लौट जाना पड़े । उतावली में पड़कर गरम ही गरम पीने के फेर में कहीं अपना कोई अंग न जला लें। गरम (दूध ) को जरा ठंढा हो जाने दीजिए तब पीजिए। (अभी प्रेम का प्रारंभ है, इसी में इतनी उतावली ठीक नहीं )। श्रीकृष्णजू को प्रकाश अभिलाष, यथा-( सवैया ) (२९५) हैं कोइ माई हितू इनको यह जोइ कहै किहि बाइ बहे हैं न्यायहीं केसव गोकुल की कुलटा कुलनारिन नाउँ लहे हैं देखि री देखि लगाइ टकी इत सोनो सो घालिकै चाहि रहे हैं 'को है री को' जैसे जानत नाहिन काल्हि ही वाके सँदेस कहे हैं।१४। १३-प्रापुन०--प्रापु समान । अब--पुनि | दिन-तिन । के--को । ही-न । कहूंक०-कहूँ को इती रसु, कहूँ बहुतो रुचि । १४-कोइ-कोउ । न्यायहीं- न्यारही। चाहि-डाहि, डारि । नाहिंन-नाहिं ब ।