पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७४ रसिकप्रिया नहीं गया ( मुह में लेकर भी उगल देता है ) । कुंभज = अगस्त । पावन = पवित्र (कुंभज का विशेषण) । अपावन = इसे अपवित्र जानकर । पचि जानि न दीनो = पचने नहीं दिया (समुद्र पीते समय चंद्रमा को पी तो गए पर पचा नहीं सके)। यासों = इसको । सुधाधर = अमृत धारण करनेवाला । सेष बिषाधर शेषनाग की तरह बिषैला । बिधि-ब्रह्मा। बुधिहीनो बुद्धिहीन । यासों० = ब्रह्मा सचमुच ही बुद्धिहीन है जिसने इसे तो 'सुधाधर' नाम दिया और शेष को 'बिषाधर' । 'विषाधर' तो इसे कहना चाहिए था ) । सूर = सूर्य । सूर = सूर्य को क्या कहा जाय जिसने इस पापी को अपने बराबर कर रखा है। श्रीराधिकाजू को प्रकाश उद्वेग, यथा -(सवैया) .(३१३) केसव काल्हि बिलोकि भजी वह, आजु बिलोकें बिना सु मरैजू । बासर बीस बिसे विष मीडिय, राति जुन्हाई की ज्योति जरै जू । पालिक तें भुव भूमि ते पालिक आलि करोरि कलालि करै जू। भूषन देहु कळू ब्रजभूषन दूषन देह को हेरि हरै जू ॥३२॥ शब्दार्थ-भजी = भाग गई । काल्हि० = आपको देखकर वह भाग गई ( पर इतने में ही आपकी छटा उसके मन में ऐसी बस गई कि यदि वह अब आपको न देखे तो मर जाएगी )। बासर = दिन । बीस बिसे = पूर्ण प्रकार से । बिष मीडिय = विष में मसलती है । बासर=दिन में तो वह सब प्रकार से विष में डूबी रहती है । जुन्हाई - चाँदनी । ज्योति - प्रकाश । राति० = रात में चांदनी के प्रकाश से जलती रहती है। पालिक = पल्यंक, पलंग, शय्या । भुवि = पृथ्वी पर । प्रालि = मेरी सखी, नायिका । कलालि = कलाछ, बेचैनी से इधर उधर होना। पालिक० = वह पलंग से पृथ्वी पर और फिर पृथ्वी से पलंग पर हो जाती है, इस प्रकार पलंग से पृथ्वी, पृथ्वी से पलंग पर आने जाने में मेरी सखी अनेक कलाछे करती रहती है । भूषन देहु = (अथवा कोई)आभूषण दीजिए । ब्रजभूषन श्रीकृष्ण । दूषन-दोषों, दुःखों, कष्टों । देह को अपने शरीर का । हेरि = (जिसे) देखकर । हरे= दूर करे । भूषन%3D आप कोई अपना गहना ही दे दीजिए जिसे देखकर वह अपनी तपन कुछ शांत कर सके। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न उद्वेग, यथा -(सवैया) (३१४) मेघनि ज्यों हँसि हंस न हेरत हंसनि ज्यों घनरूप न पीवें । कंजनि ज्यों चित चंद न चाहत चंद ज्यों के जनि क्योहूँ न छी। ३२-भजी-गी। सु-सो। मोति-जारिया ! काति- कलाप । देहु-देहि ।