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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१८०

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अष्टम प्रभाव १८३ के माध्यम से बात करती रही, स्वयम् मौन हो रही), फिर उसने सखियों के माध्यम से मिलने की अपेक्षा पत्रिका की बातों के द्वारा प्रत्यक्ष तुमसे बात करना ठीक समझकर उस माध्यम से भी वह मिली । पत्रिका का माध्यम संतोषप्रद न होने से वह ध्यान-विधान से मन ही मन तुमसे मिली, जैसे दरिद्र मन ही मन सोने की कल्पना करके उससे मिलता है । इसलिए अब आप उससे शीघ्र ही मिलिए । नहीं तो जो कुछ होना होगा वही होकर रहेगा। यदि कहीं उसकी पूर्ण प्रेमसमाधि लग गई और ( उसने योगियों की भांति ) तुममें अपने को मिला दिया, तब तुम जाकर मिलोगे भी तो किससे मिलोगे ? उसमें तुममें अभेद हो जायगा, भेद रहेगा ही नहीं। श्रीकृष्णजू की प्रच्छन्न जड़ता, यथा-( सवैया (३३२) पल हो पल सीतल होत सरोर विचारे सबै उपचार निदानें । जौ करियै तन मंडन खंडन चित्त कळू सुख दुख्ख न आनें। केसव कान्ह सुने समुझै नहिं, बूझिय कौनहिं को पहिचानें । जोग लियो कै बियोग है काहू को लोग कहा इन रोगनि जानैं ।५१॥ शब्दार्थ -पल ही पल = प्रतिक्षण । बिचारे सोचे । उपचार - रोगशमन के उपाय, औषध । निदान = रोग का आदिकारण । मंडन-अलंकृत, सज्जित । खंडन = काट डालना, कष्ट देना। न आन = नहीं लाते । चित्त कछु०-उनके चित्त में शरीर को आराम देने या कष्ट पहुँचाने से सुख या दुख नहीं होता। बूझिय० - (श्रीकृष्ण की तो यह दशा है कि वे कुछ सुनते समझते नहीं) अब किससे पूछू, कौन रोग की ठीक ठीक पहचान कर सकता है ? जोग लियो - यह योग किया है या किसी का वियोग है, आखिर लोग इन रोगों को समझते ही क्या हैं ? ( यह योगजन्य है या प्रेमजन्य अथवा अन्य किसी हेतु से है ) । श्रीकृष्जू की प्रकाश जड़ता, यथा-( सवैया ) (३३३) कान्ह के आसन बासनहीन हुतासन-मीत को प्रासन कीजै । केसव इंद्रिय सोधि सबै मन साधि समाधिनि के रस भीजै । जौ लौं भए हरि सिद्ध प्रसिद्ध न तौ लौ बिलोकि अलोक न कीजै । देवी करें तप तो लगि वै बरदान न जौ जिय-दान तौ दीजै ।५२। शब्दार्थ- वस्त्रों से । हुतासन-मीत = हुताशन का मित्र, वायु । प्रासन = भोजन, भक्षण, पान । साधि-स्थिर करके । रस भीजप्रानंद प्राप्त कर रहे हैं । अलोक = बदनामी, अपयश । भावार्थ-( सखी-वचन नायिका प्रति ) श्रीकृष्ण की अवस्था यह है कि वे आसन मारे हुए हैं, वस्त्र उन्होंने उतार फेंके हैं, हवा पीकर रहते हैं, सभी ५१-बिचारे-बित्रारि । कान्ह-स्यामु । पहिचान मानें । ५२- सोषिक-निग्रह जानिक सोधि । -बासन-