पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१८१

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१८४ रसिकप्रिया इंद्रियों को सोध लिया है (तत्तत् विषयों से उन्हें हटा लिया है-आँखों को देखने से, कानों को सुनने से आदि) । मन को भी साध लिया है और समाधि का आनंद ले रहे हैं । जब तक वे प्रख्यात सिद्ध न हो जाये तब तक देखो, उन का अपयश मत करो। हे देवी, बे तपस्या तुम्हारे ही लिए कर रहे हैं । यदि वरदान नहीं देती हो तो कम से कम जीवन-दान तो दो (उनको दशा तो यह है कि प्राण निकलने निकलने हो रहे हैं)। अथ मरण-लक्षण-( दोहा ) (३३४) बनै न क्योंहूँ मिलन जहँ, छलबल केसवदास । पूरन-प्रेम-प्रताप तें, मरन होत अनयास ।५३॥ शब्दार्थ -प्रताप तें-प्रभाव से । भावार्थ-वियोग से जब किसी प्रकार छल बल से भी संयोग नहीं हो पाता तो पूर्ण प्रेम होने के कारण अनायास मरण हो जाता है। (३३५) मरन सु केसवदास पै, बरन्यो जाइ न मित्र । अजर अमर जस कहि कहौं, कैसे प्रेत-चरित्र ५४। शब्दार्थ-पैसे । अजर अमर = अजर अमर यश का वर्णन करके अब प्रेतचरित्र ( मरण का ) वर्णन क्या करूँ ? (३३६) रति उपजै रमनीन के, पहिलें केसवदास । तिनकी इंगित देखि सखि, करत सुप्रेम-प्रकास ५५॥ शब्दार्थ-रति = प्रेम । रमनी = रमणी, नायिका । तिनकी = उनकी । इंगित = चेष्टा । (३३७) अति आदर अति लोभ तें, अति संगति तें मित्त । साधुनिहूँ के होत हैं, केसव चंचल चित्त ।५६। सूचना-'रसगाहकचंद्रिका' टीका में इसके अनंतर यह दोहा है- श्रादरादि तें साधुहू ज्यों चंचल चित होत । त्यों परि सखिसँग दंपतिहिं चंचलता उद्दोत । (३३८) सुभग दसा दस मैं कही, उपजै पूरन राग। जिहि बिधि उपजै मान मन, बरनौं सुनहु सभाग ५७) शब्दार्थ-उपजै-जिनसे पूर्ण प्रेम प्रकट होता है । इति श्रीमन्महाजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां विप्रलंभशृंगार. पूर्वानुरागवणं नं नामाष्टमः प्रभावः ।। ५३-होत-होहि । ५४-- जस०-तासों कहों। कैसे०-केसव प्रेम चरित्र । १५---की-पै । देखि-जान । सखि- पिय । ५७-मन अब । सभाग-समाय ।