पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१९६

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२०० रसिकप्रिया शब्दार्थ-धाइ = धात्री। खवासिनि दहेज में वधू के साथ आने- वाली लौंड़ी। आपनी घात अपने स्वार्थ से । माई = हे सखी। तात = इस कारण । नेक'- जरा । हरें हरें बोलि = धीरे से बोलो । बलाइ ल्यौं = बलैया लेती हूँ। डरपों = डरती हूँ। जाते = जिससे, इससे । माखन सो = मक्खन की भांति ( मृदु ) । कठेठी = कठोर । भावार्थ-( नायक ने सखी को अपनी ओर मिला लिया है, वह नायिका से कह रही है ) हे सखी, धाय और दासी सब अपनी गौं से तुझे सकुचती हैं। पर मुझे तो कहना ही पड़ता है (कहाँ तक संकोच व.रूँ)। ब्रह्मा ने मुझे तेरे साथ बांध दिया है, इसीलिए (नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी)। मैं तेरी बलैया लेती हूँ, थोड़ा धीरे धीरे बोल, मुझे डर लगता है कि मेरे मोहन का मन मक्खन की तरह मृदु है और तेरी बातें काठ की तरह कठोर हैं-कहीं ये उसमें गड़ न जाएँ। अलंकार-धर्मलुप्तोपमा ( माखन सो मेरे मोहन को मन ), पूर्णोपमा ( काठ सी तेरी कठेठी बातें), विषम ( कहाँ मृदु मन कहाँ काठ सी बातें)। श्रीकृष्णजू को भेद उपाय, यथा-( सवैया ) (३७२) काहूँ कह्यो ‘हरि रूठि रहे तब तें बहु बुद्धि बितर्क बढ़ावै । सोधि सबै अपनो सो रही धन मीत रहैं सु उपाय न पावै । ह्वाँ वह रीति इहाँ यह केसव ज्यों दुहुँ ओर जरे कों जरावै। बूझति हौं पिय प्यारी तिहारी सु मान करै कि मनावन आवै ।१३। शब्दार्थ-सोधि रही = विचार करके थक गई। मीत = (मित्र) प्रिय । भावार्थ-( नायिका ने सखी को अपनी ओर मिला लिया है । वह नायक से कह रही है ) किसी ने कहीं कह दिया कि श्रीकृष्ण रूठे हुए हैं। जब से ऐसा सुना तभी से वह अपनी बुद्धि में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क कर रही हैं। अपनी वाली सब कुछ कर धरकर वह थक गई । 'धन भी रहे और मित्र भी न जाय' ऐसा कोई उपाय उसे दिखाई नहीं देता। वह तो यहाँ दशा है और यहाँ यह कि आप मान किए बैठे हैं आप भी उसे कष्ट दे रहे हैं (मोरों ने वह कथा सुनाकर कष्ट दिया)। उस बेचारी की तो वही दशा है कि दोनो ओर से जल रही है ( उसे इस स्थिति से निकालनेवाला कौन है)। इससे मैं आप ही से पूछती हूँ कि वह ऐसी हालत में स्वयम् मान करे या माप को मनाने के लिए यहां दौड़ी आए ? अलंकार-लोकोक्ति। १३-बहु-यह । रहै-मिले। सु-सो। ज्यों-जो । कों-को। जरावे- जुड़ावै । बूझति-पूछति ।