पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२००

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रसिकप्रिया शब्दार्थ-चपला = बिजली। सयन ( सैन्य ) सेना । दमामे-नगाड़े। दीह=दीर्घ, बड़े । दिनमनि - सूर्य । लाज के लीने = लाज को लिए हुए, मारे लज्जा के । साँवरे = श्रीकृष्ण । तमराज = अंधकार रूपी नृपति । भावार्थ-( सखी उक्ति नायिका प्रति-वर्षा के समय नायिका ने मान किया है सखी विषयांतर करके नायिका का मानमोचन करना चाहती है) यह बिजली नहीं चमक रही है, हथियारों की चमक है । ये मोर नहीं बोल रहे हैं, सेना के वंदी हैं ( जो वीरों की प्रशस्ति पढ़ रहे हैं ) । जहाँ तहाँ बादल नहीं गरज रहे हैं, बड़े बड़े नगाड़े बज रहे हैं। इसके आतंक से भय के कारण लज्जित होकर सूर्य ने अपना मुंह छिपा लिया है ( वह बादलों के प्रावरण से प्रकृत्या ढका नहीं है, सेना से भयभीत होकर छिप गया है)। इसलिए हे चंद्र- मुखी, श्याम-सखा के पास तू शीघ्र ही चल क्योंकि वे शत्रु के सुखों के शोषक हैं ( शत्रु को नष्ट करनेवाले हैं )। ये बादल आकाश में नहीं घूम रहे हैं, महाराज अंधकार के ये वीर हैं जो वायु रूपी घोड़ों पर चढ़कर चंद्रमा को ढूंढ़ते फिर रहे हैं ( तू चंद्रमुखी है कहीं तेरे ही ऊपर आक्रमण न कर बैठे)। अलंकार-अपह्नति और रूपक का संकर । श्रीकृष्ण की उपेक्षा, यथा-( कबित्त ) (३८१) केसौदास दिनराति केतकी की भावै भाँ ति, जिय में बसति जाति नैननि में नलिनी । माधवी को पीवै मधु सूझत न अंध कहँ, सेवती सेवन कही सेई गंधफलिनी । और हौं कहति बात कान्ह काहे को लजात, ऐसे तौ खिस्याइ सो जु होइ मनमलिनी। देखौ नहीं प्रानपति निलज अली की गति, मालती सों मिल्यो चाहे लियें साथ अलिनी ।२२। शब्दार्थ-केतकी = केवड़ा । भांति = रंगढंग । जाति = जाती, चमेली। नलिनी कमलिनी । सेवती = सफेद गुलाब। गंधफलिनी =गंधफली, चंपे की कली ( मिलाइए-एतस्य कलिका गंधफली स्यादथ केसरे-अमरकोश, २०६४, गंधः फलं साध्यमस्याः-व्याख्यासुधा। प्रियंगौ स्त्री गन्धफली चम्पकस्य च कोरके-रुद्रः)। गंधफली प्रियंगु ( काकुनी) और चंपे की कली दोनो को कहते हैं, चंपे की कली को गंधफली इसलिए कहते हैं कि उसमें सुगंध ही फल होता है । प्रानपति = प्यारे स्वामी ( मालिक)। २२-भाव-भरै । भांति-बास | पोवै-पिये। कह-कछू, कहूँ। कही- श्वाहि । मोरै-और, औरों । देखो०-देखहु धौ । लिये साथ-सोने संग । .