रसिकप्रिया शब्दार्थ-तारे-नक्षत्र, नेत्र की पुतली। चितवै चहुंघातो = चारो तरफ देखती है । ककुरे = सिकोड़े हुए। तातो=तप्त । भेटतहीं = भेंट करते ही, छूते ही । बरहीं = बलपूर्वक । बरयाइ गई = कठिनता से गई थी, मुश्किल से हटी थी । सुखै= सुखाकर, नष्ट करके । बहुरयौ = फिर, पुनः । सुख सातो - सात प्रकार के सुख (खान-पान परिधान पुनि ज्ञान गान दुति अंग । सुभ संयोग वियोग बिन, सातो सुख तिय संग ।। हस्तलिखित प्रति में यह दोहा मूल में है । रातो रक्त, लाल । भावार्थ-( नायक-वचन सखी प्रति ) प्रेतिनी की भाँति अनेक (नेत्र के ) तारों को चढ़ाए हुए (नक्षत्रों से युक्त) चारो ओर देखती चल रही है । कोढ़िन ( स्त्री) की भाँति कर रूपी कमलों को सिकोड़े हुए है ( रात में कमल संकुचित हो जाते हैं )। इसका सारा शरीर ( कुष्ठ के कारण ) श्वेत है ( चांदनी फैली है )। शरीर तप्त है (विरह के कारण चांदनी तप्त जान पड़ती है)। अभी बरबस मुझे छूते ही सातो सुख नष्ट कर, बड़ी कठिनाई से गई थी। मैं क्या करूँ, कैसे अपने को बचाऊं वह रात्रि (पिशाचिनी) फिर लाल मुँह किए ( ललाईयुक्त, उदित होते हुए चंद्रमा से युक्त ) आ गई । सूचना-विरह में सात सुख दुःखद माने जाते हैं- नींद, सेज, सुमनो, समा, संगति, सालि, सुगंध । सात बियोगिन को करत, महा विरह ते अंध ।। (-सरदार की टीका श्रीराधिकाजू की निद्रा, यथा -(सवैया) (४०६) आएँ तें आवैगो आँ खिनि आगेंही डोलि है मानड्डु मोल लई है सोवै न सोवन देइ न थों तब सोवन में उन साथ दई है मेरियै भूलि कहा कहाँ केसव सौति कहूँ तें सहेली भई है । स्वारथ ही हितु है सबकें, परदेस गएँ हरि नींदी गई है।१४। शब्दार्थ-पाएं तें = प्रियतम के आने पर । मानहु मोल लई है = मानो मोल ले ली गई है अर्थात् क्रीतदासी की भांति है । सोवै = ( यह ) सोती थी, सोना चाहती थी (प्रिय के पास )। तब = जाते समय । सोवन में - सोने के समय । उन=प्रिय ने। भावार्थ-( नायिका-वचन सखी से ) हे सखी, प्रिय के आने पर वह नींद आएगी और क्रीतदासी की भाँति आँखों के आगे नाचा करेगी, पर इस 1 , , १४-डोलिह-डोंलगी । सोवै-सोऊँ । देइ-देउँ। न यों-न ज्यों, सखी। मेरिय-मेरी सों।
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