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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१३

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एकादश प्रभाव समय नहीं पाती। ( उस समय वह पति के पास सोने की बहुत इच्छा रखती थी) उनके पास सो जाती थी, पर मैं उसे सोने नहीं देती थी। इसलिए विदेश जाते समय ( चित्त में कोई खटका न हो ) इसलिए वे उसे मेरे साथ सोने के लिए दे गए हैं । पर इसमें भी मेरी ही जूल है, भला कहीं सौत सखी हुई है । सबको स्वार्थ ही प्रिय होता है, प्रिय के परदेश चले जाने पर वह नींद भी उड़ गई है। ( वह भी मेरा साथ नहीं देती ) । श्रीकृष्णजू की निद्रा, यथा-(सवैया ) (४०७) केसव कैसहूँ कोरि उपाइन जानि सु तो डर लागति है। चकचौंधत सी चितवै चित में चित सोवतहूँ महँ जागति है। परदेश प्रिया पल मोहिं पत्याति न जाने को याकी कहा गति है तजि नैननि नींद नवोढ़वधू लहुँ प्राधिक रातितें भागति है ।१५। शब्दार्थ-कोरि = करोड़ों । पानि = आकर । सु तौ = वह तो (नींद)। परदेस प्रिया = प्रिया के परदेश में होने से ( विरह के कारण ), यह प्रिया ( नवोढ़ा वधू निद्रा ) परदेश में है ( पिता के घर से पति के घर आई है )। लहुँ = लौं, समान । भावार्थ:-( नायक-वचन स्वगत या मित्र से ) किसी प्रकार करोड़ों उपाय करने पर तो यह छाती से पाकर लगती है । (छाती से लगने पर) चित्त में चकपकाती हुई सी देखा करती है (सोती नहीं, पूरी नींद आती नहीं) सोने पर भी चित्त से जागती रहती है, सावधान रहती है ( बारबार उचट जाती है)। प्रिया के परदेश में होने से यह मुझ पर क्षण भर के लिए भी विश्वास नहीं करती। न जाने इसकी कैसी चालढाल है। नेत्रों को त्याग कर नवोढ़ा वधू की भांति निद्रा प्राधी रात से ही चुपचाप शीघ्रता से भाग जाती है । अलंकार-रूपक । श्रीराधिकाजू की सखी की पत्री, यथा-(सवैया) (४०८) केसव कुवर बृषभानु की कुवरि आजु, देवता ज्यों बन उपबन बिहरति है। कमल ज्यों थिर न रहति कहूँ एक छिन, कमलाग्रजा ज्यों कमलनि तें डरति है। काली ज्यों न केतकी के फूल रुचे, सीता जूज्यों निसिचर-मुख तिन देखे ही जरति है। १५---अधिक-आवत ही निसि । ,