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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१९

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द्वादश प्रभाव २२३ अमृत की पराकाष्ठा की प्राप्ति होती है । लुकाछिपी के द्वारा उनसे नेत्रों को मिलाने और प्रायः चुराए रखने में क्या सुख ? (लुक-छिपकर थोड़ा नेत्र मिला लेने से कितना सुख मिलेगा ) जब तक प्रिय के मन में अपने मन को डालकर ( स्वच्छंदतापूर्वक ) विचरण करने के लिए न छोड़ दिया जाय (मन से मन भली भांति मिल न जाय, खुलकर न मिल जाय ) । सूचना-बिहारी ने भी ‘महूख' शब्द का प्रयोग किया है- छिनक छबीले लाल वह जो लगि नहिं बतराइ । ऊख महुख पियूख की तो लगि भूख न जाइ ।।-बिाहरी-सतसैया 'देव' ने भी इसका बहुत प्रयोग किया है । यह 'मयूख' भी लिखा मिलता है । जनी को वचन श्रीकृष्ण सों, यथा-( कबित्त) (४१७) ऐसी बातें ऐसें ही धौं कैसैं कै कही परति, जाकी गति मति लाज-पट सों लपेटी हैं। मेरे ही न आवै, मेरी बीर एती बेर वे तौ, जानति हौं धाइ ही के साथ लौटि लेटी हैं। ऐसी तौ हैं चेरिन की चेरी वाकी केसवदास, जैसी तुम हाहा करि पाइ परि भेंटी हैं। जानति हौं नंदजू के ढोटा हौ जू , जानौ बोल, उतहिं वेऊ तौ बृषभानजू की बेटी हैं ।६। शब्दार्थ-ऐसें ही धौं = जिस प्रकार तुम कह रहे हो । जाकी० = जिसकी चालढाल लज्जा रूपी वस्त्र में लिपटी है, जो अत्यंत लज्जाशील है । मेरे ही = मेरे यहां तो कभी आती ही नहीं । हाहा करि= विनय करके । ढोटा=पुत्र । भावार्थ-( जनी की उक्ति नायक से ) आप जैसे कह रहे हैं वैसे भला मुझसे और उस पर भी ऐसी बातें, उससे कैसे कही जा सकती हैं ? यही नहीं उससे जिसकी चालढाल अत्यंत लज्जाशील है (प्रेम की ये प्रगल्भ बातें)। परी मैया, मेरे यहां तो वह आती नहीं और फिर इस समय ( रात में ) मेरा अनुमान है कि वह ( घूम-फिरकर ) धाय के साथ साथ लौटी है और पाराम कर रही है ( इस बीच जाकर कैसे ये बातें कहूँ ? ) । जैसी नायिका से विनय करके और पैरों पड़कर आज आपने प्रालिंगन किया है, वैसी तो उसकी दासी की दासी हैं । जानती हूँ कि आप नंद जी के लाडले हैं, आपके बोल मैंने पह- चाने । उधर वे भी वृषभानु की लाड़िली पुत्री हैं ( मेरी तो हिम्मत नहीं कि उनसे जाकर ऐसी बातें कह सकू )। ६-श्रीकृष्ण सों-प्रिय प्रति । ही घो-हिये । कैसे-कैसे कही परति धौं, कैसे कही परत न । पट-पाट । बेर-बार । पानति-जात पाइ ही के घर साथ। केसौदास-केसोराइ । ढोटा-बेटा। बोल-जाहु । उतहि-वेऊ तो उतहि ।