पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२८ रसिकप्रिया देखि तेरी सूरति की मूरति बिसूरति हौं, लालन को हग देखिबे को ललचाति है। चलि है क्यों चंदमुखी कुचनि के भार भएँ, कचनि के भार तो लचकि लंक जाति है ।१३। शब्दार्थ-दुरिहै = छिपेगी। जोति = ज्योति, दीप्ति । नाह = नाथ, नायक । सुभाव ही की=स्वाभाविक । भौंर-भीर फारे खाति है = भौरों की भीड़ फाड़े खाती है, भौंरे घेरे रहते हैं । सूरति की= सौंदर्यवाली। बिसूरति हौं = मैं सोच रही हूँ। कुच = स्तन । भार = बोझ । लंक = कमर, कटि । भावार्थ-देह की स्वाभाविक दीप्ति से जब रात दिन की भाँति प्रकाश- युक्त हो जाती है तब फिर यौवन की युति उत्पन्न होने पर और भूषण एवम् वस्त्रों से सुसज्जित हो जाने पर तेरी दीप्ति कैसे छिपाए छिपेगी ? जब शरीर की स्वाभाविक सुगंध ही से भौंरों की भीड़ तुझे घेरे रहती है तब नायक की सुमंध लगने से न जाने क्या दशा होगी ? मैं तो तेरी सुदर मूर्ति देखकर ( उसके ऊपर पड़नेवाले झंझटों का ध्यान करके ) सोच कर रही हूँ और तू निश्चित होकर नायक को अपनी आँखों से देखने के लिए लालायित हो रही है ( नायक को देखने पर तेरी जो दशा होगी उसकी कल्पना से ही मैं दुखी हो रही हूँ और तू उसी के लिए प्रयत्नशील हैं)। अभी केशों के बोझ से तेरी कमर लचक जाती है, जब कुचों का भार होगा तब न जाने तू कैसे चल सकेगी? सूचना-(१) केशवदास ने इसे 'कविप्रिया' में अभूतोपमा के उदाहरण में दिया है। (२) 'सुबास', 'भौंर' आदि की बात लाने से 'मालिन' जान मालिन को वचन श्रीकृष्ण सों, यथा-( कबित्त) (४२५) घेरौ जिनि मोहिं घर जान देहु घनस्याम, घरिक में लागी उर देखिषी क्यों दामिनी । होइ कोऊ ऐसी वैसी आवै इत उत कैकै, को वह वृषभानजू की बेटी गजगामिनी । आदित को आयो अंत आवो बलि बलि जाउँ, प्रावती हैं वेऊ बनी, आई पनि जामिनी। १३. सुभाव-सुदेह, सुबास । लंक-काट ।