पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वादश प्रभाव २२९ - काम के डरनि तुम कुंज गह्यो केसौदास । भौरन के भय भौन गयो उनि भामिनी ।१४। शब्दार्थ --धेरौ जनि = रोको मत। घनस्याम= श्रीकृष्ण; बादल । “धरिक में = एक घड़ी में । देखिबी = देखोगे । दामिनी-बिजली । लागी उर०= बिजली की भांति उसे हृदय से लगी देखोगे। ऐसी वैसी = साधारण । इत उत ढकै = इधर उधर से । आदित = ( आदित्य) सूर्य । बनि=सजकर । बनी= शृंगार किए हुए । जामिनी रात्रि । काम = कामोद्दीपन । भामिनी मन को भाने वाली, प्यारी नायिका । भावार्थ-हे कृष्ण, पापने काम के भय से (कारण ) कुज में प्रवेश किया और भौंरों के भय से वे घर में बैठी हैं । अब सूर्यास्त का समय हो रहा है (वैराग्य-वेश त्यागिए ) शीघ्र सजकर प्रस्तुत हो जाइए, मैं बलिहारी जाती हूँ। रात्रि आ ही गई, वे भी शृंगार किए हुए आ रही हैं (वे पद्मिनी और कमलबदनी हैं, उन्हें सुगंध-लोलुप भौंरे दिन में घेरे रहते हैं )। यदि कोई साधारण घराने की लड़की होती तो इधर उधर से (किसी प्रकार ) मा ही जाती, पर एक तो वे वृषभानु की पुत्री हैं ( बड़े घराने की हैं ) दूसरे गज- गामिनी हैं ( धीरे धीरे चलती हैं )। हे घनश्याम, मुझे मत रोकिए (नायिका के घर जाने दीजिए ) घड़ी भर में उन्हें माप दामिनी की भांति अपने हृदय से लगी देखेंगे। सूचना-(१) नायक दुखी होकर जंगल में चला गया है। (२) सुवास की चर्चा करने से मालिन है। बरइनि को वचन कृष्ण सों, यथा-( कबित्त ) (४२६) मैन ऐसो मन मृदु मृदुल मृनालिका के सूत ऐसी सुरधुनि मनहि हरति हैं। दारथो कैसे बीज दाँत, पान से अरुन ओठ, केसौदास देखे ग आनँद भरति हैं। एरी मेरी तेरी मोहिं भावति भलाई तातें, बूझति हौं तोहि और बूमत डरति हैं । १४-देखिबी ज्यों-लागि लोजो, देखि लीजो । हक-होइ, 8 सो । वह-- वेक, वे तौ । बलि बलि-प्रघनन, बन बलि । आई०--और आई, आई अरु । काम के०-जैसे तुम काम के डरनि कुंजभोन गह्यो केसौराइ । के भय०-भयनि भवन गह्यो, उन भोन गह्यो । उनि-उहि ।