पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२२६

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द्वादश प्रभाव २३१ दबानो, ये बहुत ही अनौति कर रहे हैं । तुम इन्हें उतना नहीं जानते जितना इन्हें ब्रज जानता है । ये अत्यंत चंचल स्वभाव और चित्तवाले हैं, ये शीघ्र ही जादू डाल देते हैं यही नहीं, चित्तों पर जादू डालकर उन्हें चक्कर में भी डाल देते हैं। ये किसी के स्तनों से उलझकर हृदय में घुस जाते हैं । (चित्त) डरे डरे घूमते हैं। इनके डर से इधर उधर भागते फिरते हैं, न जाने कैसे जीते हैं। शिल्पिनी को वचन राधिका सों, यथा-( सवैया ) (४२८) अबहीं पुनि बोलि री बोलि लगी जक पौरिहूँ-लौं उठि जान नदीने। मेरे ही जान भई उलटी तुमही बस केसव वे कहँ कीने । जौ तौ इतौ दुख पावति हौ तलफैं दृग मीन मनो जल झीने । तौ कत छाति हौ छिन एक रहौ किनि चित्र ज्यों हाथहिं लीने १७॥ शब्दार्थ-बोलि री बोलि = बुला री बुला । जक = धुन, रट । पौरिहूँ लौं = दरवाजे तक भी न जाने दिया। उलटी बस = उलटी तू ही उनके वशीभूत हो गई है । इतौ = इतना ( अधिक )। तलफ = तड़पते हैं । झीने = कम, थोड़े। भावार्थ-हे सखी, अभी उन्हें यहाँ से उठकर तूने द्वार तक जाने भी न दिया कि 'बुला ले बुला ले' की रट फिर लगा दी। मेरी समझ से तो तू ही उनके वश में हो गई है । उन्हें तो तूने केवल कहने के लिए वश कर रखा है। यदि तू ( वियोग से ) इतना दुख पाती है और तेरे नेत्र थोड़े पानी में की मछली की तरह तड़पते हैं तो उन्हें पल भर के लिए भी तू क्यों छोड़ती है ? हाथ में चित्र की भांति लिए ही क्यों नहीं रहती ? अलंकार-उत्प्रेक्षा। सूचना-यहाँ 'चित्र' शब्द से 'शिल्पिनी' सूचित है । शिल्पिनी को वचन कृष्ण सों, यथा-( सवैया ) (४२६) खोट तुरी जिमि खूट रही गहि ठौर कुठौरनि जानिहू जाहू । लाज न आवति मारे समाजन लागें अलोक के ताजन ताहू । कोरि विचार बिचारहु केसव देखहु बूझि हितू सब काहू । नेह ही के फिरि लागिहौ संग न नैननि के सँग ओर निबाहू ।१८। १७-उलटी--फिरि तू । तुमहीं 10--बस केसव हैं कहिले कहँ । तौ-पै । पावति-देखति । झीने-हीने, जीने । कत--कहा, कित । १८-खोट-खेट, खोट- खाटु । जानिहू-जानि न । लाज न-लालन । समाजन-सभाजन । बूझि-बोलि । नेह ही-नेह है।