द्वादश प्रभाव २३६ भावार्थ-जिन्होंने घर, प्रेम, शरीर, धन और आभूषण की तेरी भूख मिटा दी, मुझे हंसी भी आती है और दुख भी होता है कि हे ईश्वर, आज तू उन्हीं से चतुराई कर रही है। भला तुझे इतनी बड़ाई दी भी गई तो क्या हुआ, कभी भी जाति-स्वभाव नहीं जाता। पीतल को चाहे सोने से सिंगारा जाय चाहे उस पर सुगंध का लेप ही क्यों न किया जाय उसकी पितराई (दुर्गुण ) जाती नहीं। अलंकार-लोकोक्ति । सूचना-सरदार ने लिखा है-याही पेंच तें केशव सामान्या कहि चुके..."हमारे शिष्य नारायण कवि को भ्रम भयो कि यह कबित्त को हैं।' हस्तलिखित प्रतियों में भी यह छंद मिलता है। हाँ, लीथोवाली प्रति में यह नहीं है । छंद 'केशव' का ही जान पड़ता है। धन और भूषणादि की इच्छा पूर्ण करने की बात होने से इसमें सामान्या ही नायिका होगी। पटइनि को वचन कृष्ण से, यथा-( सवैया ) (४४०) वा मृगनैनी ज्यों औरनहीं जु लगावत हो मुँह ऐसे न हूजै । सोनेई सी सुनपीतर होइ तौ केसव कैसहुँ हाथ न छूजै । आप गिरा गुन जौ सिखवै तऊ काक न कोकिल ज्यों कल कूजै । सुंदर स्याम विराम करौ कछु आम की साधनामिली पूजै ।२६। शब्दार्थ-ज्यों= भांति । सुनपोतर=घटिया पीतल । गिरा = सरस्वती । काक = कोमा । न कल कूज = सुंद्र स्वर से नहीं बोलता। बिराम करो रुको, अपने कार्य बंद करो। साध = प्रबल इच्छा । भावार्थ-उस मृगनयनी की भाँति पाप जो मन्य स्त्रियों को मुंह लगाते है, एसा न होना चाहिए । सोने की तरह सोनपीतल भी होता है पर उसे कोई हाथ से नहीं छूता । यदि स्वयम् सरस्वती ( बोलने का ) गुण सिखाए तो भी कोमा कोयल की तरह सुंदर वाणी नहीं बोलता। इसलिए हे श्यामसुंदर, अब पाप अपनी करतूत बंद करें। क्या कभी पाम की इच्छा इमली पूर्ण कर सकती है ? अलंकार-लोकोक्ति। (दोहा) (४४१) बैन ऐन-सुख मैन करि, कहे सखिनि के धर्म । केसव कहाँ कछूक अब तिनके कोबिद कर्म ।३। २६-सोनेई०-सोने सो जो कहूँ पीतर । होइ-होहि । धर्म-नम, मर्म
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