त्रयोदश प्रभाव - भुला दो, २४३ कालि तें कालि के होन दई हँसी, पाइ परों न परौं मुंह कादौ । राज करौ यह राज सदा रहै केसव चित्र ज्यों आगे ही ठाढ़ौ ।। भावार्थ-जो 'नहीं' सिखाती हैं वे भली नहीं हैं। 'नहीं' सिखानेवाली स्त्रियों का मुख आग से जला दो । भौंहों के ( इस रोष भाव) को नेत्रों के अनुकूल चलकर प्रेम बढ़ाओ। कल-कल करके तो तुमने खूब अपनी हसी होने दी । पैरों पड़ती हूँ अब पड़ी (लेटी) न रहो अपना मुह ( चादर में से ) बाहर निकालो। चलो रजो राजो, तुम्हारा यह राज सदा रजा रहे और चित्र की भाँति ज्यों का त्यों आगे खड़ा रहे । सूचना-हस्तलिखित प्रति में और सरदार की टीका में यह छंद मिलता है, पर लीथोवाली प्रति में नहीं है । सरदार ने लिखा है-'यह कबित्त प्राचीन पुस्तकन में नाहीं मिलत तातें नारायण कवि नहीं लिख्यो । पुनः-( सवैया ) (४४८) रीझि रिझाइ झरोखनि झाँकि रही मुख देखि दिखाइ सुभाहीं। बोलन श्राएँ अबोली भई अब केसव ऐसी हमैं न सुहाहीं । मैं बहुतै बहराई हैं तो सी तू बहरावति मोहिं बृथाहीं। एहीं समान सदा चलिहौ हरि सो हँसि 'हाँ' करै मोहीं सों नाहीं 1७। शब्दार्थ-रीझि = मुग्ध होकर । रिझाइ = मुग्ध करके। सुभाहीं-स्व- भावतः, प्रकृत्या । बोलन = बोलने के लिए । अबोल = मौन । बहराई = भुलावा दिया। सयान-चतुराई । भावार्थ-स्वयम् मुग्ध होकर और नायक को मुग्ध करके झरोखों से झांक कर स्वभावतः उनका मुख देख रही है और अपना दिखा रही है। पर जब यहाँ बोलने के लिए आते हैं तब चुप्पी साध लेती है। मुझे ऐसी स्त्रियां अच्छी नहीं लगतीं । तेरी ऐसी बहुतों को मैंने भुलावा दिया है, पर तू जो मुझे भुलावा देना चाहती है वह व्यर्थ है । क्या सदा तेरी यही चतुराई चलती रहेगी? कैसी विलक्षण है कि नायक से तो हँसकर 'हाँ' करती है और मुझसे 'नहीं'। कृष्ण को मनाइबो-( सवैया ) (४४६) भूषन-भेद बनाइकै केसव फूल बनाइ 'ब नाइकै बागे। भाग बढाइ सुहाग बढाइकै राग बढाइ हियें अनुरागे। ६-पावक-जावक । सों-लौं। होन-दोन । न परो-तन प्यो। यह जहें । राज-आज । प्रागे-माग ही डाढो । ७-री-पै। एहीं-याही, ऐसे । करै-करि । मोही-मोहि, मोहू ।
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