२५० रसिकप्रिया शब्दार्थ-कानि-मर्यादा। अनख - रोष। प्रोलिय=घुस गया हैं, उत्पन्न हो गया है । सयान = चतुराई। मानस = मनुष्य को। ऐंड = गर्व । ऐंडाति = टेढ़ी मेढ़ी होती है । ऐंड बैंड = टेढ़ी मेढ़ी। निरमोलिय निर्मूल्य, अमूल्य । हरेहूँ = धीरे से भी। भावार्थ-तेरी कुल-मर्यादा क्या बड़ी है, केवल रूप पर ही तेरे हृदय में ऐसा अनोखा रोष उत्पन्न हो गया है। अपने चातुर्य के सामने तू किसी व्यक्ति को कुछ समझती ही नहीं । गुमान के विमान पर चढ़ी हुई आकाश ही आकाश में उड़ी फिरती है (धरती पर तो पैर ही नहीं रखती)। गर्व से तू टेढ़ी मेढ़ी हुई जा रही है, तेरा अंचल भी उड़ रहा है ( उसके सँभालने की भी चिंता नहीं, कुछ तो लज्जा कर ! ) । ऐसा बेतुका हठ छोड़, तू तो अत्यंत अमूल्य दृष्टिवाली है। ( कुछ तो विचार कर कि ) हे हरिणनयनी, जिन श्रीकृष्ण ने अपना औरे सा ( बहुमूल्य ) मन प्रसन्नतापूर्वक तुझे दे डाला, क्या उनसे धीरे से भी बोलना न चाहिए । कृष्ण को उराहनो-( कबित्त ) (४६०) सौंइनि को सोच न सकोच काहू बोच को को, पोछौ प्यारे पीक-लीक लोचन किनारे की । माखन की चोरी की है थोरी थोरी मोहूँ सुधि, जानति बिसेष बहे जोरी है जु बारे की। मेरियै कुमति और कहा कहीं केसोदास, लागति है लाल लाज इहाँ पाइ धारे की । एती है झुठाई, वह अवहीं रुठाई, यह छारहू तौ छूटी नाहिं पाइन के पारे को ।१६। शब्दार्थ-सोच = चिंता, परवा । सकोच = संकोच, लज्जा। बीच की को = मध्यस्थ का। जोरी जोड़ी। 'बारे की = लड़कपन की। पाइ धारे की= यहां आने की। एतो है = इतनी अधिक । रुठाई = रुष्ट कर दिया। छारहू = धूल भी। पाइन के पारे की = पैरों पर पड़ने की। भावार्थ-पापको न तो शपथों की चिंता है और न बीच में पड़नेवाली का ही संकोच है । भला नेत्रों के किनारे लगी हुई पान की पीक का चिह्न तो पोछ डालिए । ( दूसरी नायिका के यहाँ जाकर जो आपने चोरों की सी करतूत की है यह नई बात नहीं है. लड़कपन से आप घर का मक्खन छोड़कर १६-बिसेष०-वहै किसोरी । जोरी-मोरी। पाइ-पांव, पग। रुठाई- रुढ़ाई। यह. वह । २०-के दुख-को दुख । पाइहै-पैहै मैं। जी को०-जीय की तोहि ।
पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२४७
दिखावट