पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२४९

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कहत, चतुर्दश प्रभाव अथ हास्थान असा--- ( दोहा) (४६४) नयन नयन कछु करत जब, मन को मोद उदोत । चतुर चित्त पहिालिदै, तहाँ हास्यरस होत ।१। भावार्थ - नेत्रों ( चेष्टा और वचनों को कुछ का कुछ करने से जहाँ मन में प्रसन्नता का उदय हो वहाँ हास्यरस होता है। हास्य रस के भेद-( दोहा ) (४६५) मंदहास कलहास पुनि, कहि केसव अतिहास । कोबिद कषि बरनत सबै, अरु चौथो परिहास । २ । मंदास-लक्षण-( दोहा) (४६६) बिगसहिं नयन, कपोल कछु, दसन, दसन के बास । मंदहास तासों कोबिद केसौदास । ३ । शब्दार्थ ----विगसहि = थोड़े खुले हों। दसन के मान = दाँतों का प्राव- रण, होंठ। भावार्थ-जहाँ नेत्र, कपोल, दाँत और होंठ ( हँसने में ) थोड़े थोड़े खुल जायें वहीं मंदहास होता है । (४६७) बरनत बाढ़े ग्रंथ बहु, कहे न केसवदास । औरौ रस यों जानियो, सबे प्रछन्न प्रकास । ४ । शब्दार्थ-औरौ रस० - अन्य रसों के संबंध में भी यही समझना चाहिए अर्थात् श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य सभी रसों का विस्तार-भय से संक्षेप में ही निरूपण किया गया है। सबमें प्रच्छन्न सबमें प्रच्छन्न और प्रकाश भेद होते हैं। सूचना--यह दोहा केवल हस्तलिखित प्रति में नहीं है। राधिका को मंदहास, यथा-( सवैया ) (४६८) भेद की बात सुने ते कळू वह मासक तें गुलुकमान लगी है। बैठति है तिन में हठिकै जिनको तुमसों मति प्रेमपगी है। १-कछु-ये, जब -जह, कछु । मन-जन । पहिचानिये-पहिचानियो । २-बरनत-बरनी। ३--- ---बिमसहि- विकसहि । दसन के-बसन के। कहत- कहै । ४-बहु-जिहि । कहे न-जेहि कहि, जेहि कवि । 7 G