पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५०

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सूचना- चतुर्दश प्रभाव २५३ जानति हौं नलराज दमैती की दूतकथा रस-रंग रंगी है। पूजैगी साध सबै सुख को बड़भाग की केसव ज्योति जगी है ।। शब्दार्थ-भेद की बात-रहस्य की बातें। मासक तें = एक मास से । हठिकै = बरबस । जिनकी० = जो तुमसे प्रेम करते हैं। नलराज = राजा नल । दमैती = दमयंती। दृतकथा० - नल और दमयंती की दूतकथा के आनंद के रंग में रंग गई है, उनकी दूतकथा चाव से सुनती है । साध%3 ( सं० श्रद्धा ) उत्कट अभिलाष । बड़भाग० = परम सौभाग्य का उदय हो गया है। विवरण-- "भेद की बात' से मुसकाना मंदहास है । |--यह सवैया 'कविप्रियः' के हास्य रसवत्' में भी उद्धृत है । अंतर यह है कि यहां पहली पंक्ति चौथी पंक्ति हो गई है। लीथोवाली प्रति में यह छंद नहीं है। अपरंच-( सवैया ) (४६६) जानै को पान खवावत क्योंहूँ गई अँगुरी गड़ि ओठ नवीने । ते चितयो तबहीं तिहिं रीति री लाल के लोचन लीलि से लीने । बात कही हरएँ हँसि केसव मैं समुझी वे महारस भीने । जानति हौं पिय के जिय के अभिलाष सबै परिपूरन कीने । ६ । शब्दार्थ-गड़ि गई-लग गई, छू गई। लीलि से० - खा सी गई, ऐसा माँखें फाड़ फाड़कर देखा कि नेत्रों को खा सी गई । हरएं = धीरे से । भावार्थ-( सखी का वचन नायिका प्रति न जाने किस प्रकार पान खिलाते समय तेरे नए ( कोमल होंठ में उनकी उँगली गड़ गई, उस समय तूने ऐसी कड़ी दृष्टि से देखा कि नायक के नेत्रों को खा सी गई (आँखें फाड़ फाड़ कर रोषपूर्वक देखा ) और धीरे धीरे हंसकर फिर कुछ कहा भी। मैं समझती हूँ कि वे अत्यंत रसिक हैं । जानती हूँ कि तूने नायक के हृदय के सभी अभिलाष ( इसी मुद्रा से ) पूर्ण कर दिए। विवरण-नायिका को नायक के विनोद का स्मरण कराकर हंसाना चाहती है, उद्देश्य मिलाने का है । श्रीकृष्णजू को मंदहास, यथा-(कबित्त ) (४७०) दसन-बसन माँझ दमकै दसन-दुति, बरषि मदन-सर करत अचेत हौ। ५-वड़-तन । ६-गुरो०-लगि अंगुली । ते-ती। रीति-भांति जु । केसव-के सुनि ।