पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५१

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२५४ रसिकप्रिया झाई झलकति लोल लोचन कपोलनि में, मोल लेत मन क्रम बचन समेत हो । भौहैं कहें देत भाउ सुनौ मेरी भावती के, भावते छबोले लाल मौन कौन हेत हौ। केसव प्रकास हास हँसि कहा लेहुगे जू , ऐसे ही हँसे तें तौ हिये कों हरे लेत हौ ।७) शब्दार्थ -दसन-बसन = दांतों का वस्त्र, होंठ। सर-बारण। क्रम %D कर्म । प्रकास-प्रत्यक्ष, खुलकर । भावार्थ-(सखी की उक्ति नायक प्रति) आपके होठों के भीतर ही दांतों की चमक दमदमाती है, इस प्रकार आप कामबाण की दृष्टि करके अचेत कर देते हैं । चंचल नेत्रों और कपोलों में ( हास की एक हलकी ) छाया सी झल- मला रही है। इसी के द्वारा मनसा, वाचा, कर्मणा आप मोल ले लेते हैं ( मनोहर छटा से देखनेवाला मुग्ध हो जाता है )। भौंहें भेद की बातें बतला रही हैं । हे मेरी प्यारी सखी के प्रिय छबीले लाल. आप मौन किसलिए हैं ? जब माप इस प्रकार (मंदहास) से ही हंसकर हृदय को चुराए ले रहे हैं तो खुलकर हँसने पर न जाने क्या करेंगे ? (जब मंदहास में यह छटा है तो खुले हास में न जाने कितनी अधिक मनोहरता होगी ) । कलहास-लक्षण-(दोहा) (४७१) जहँ सुनिय कलध्वनि कछू , कोमल बिमल बिलास । केसव तन मन मोहिये, बरनहु कबि कलहास ।। भावार्थ - जहाँ कोमल चेष्टाओं के साथ मनोहारिणी मधुर ध्वनि भी थोड़ी थोड़ी हो वहाँ कलहास होता है ( मंदहास में ध्वनि कुछ भी नहीं होती कलहास में ध्वनि भी होती है )। श्रीराधिकाजू को कलहास यथा-( सवैया) (४७२) काळे सितासित काछनी केशव पातुर ज्यों पुतरीनि विचारौ । कोटि कटाछ नचै गतिभेद नचावत नायक नेह निनारो। बाजत है मृदुहास मृदंग सु दोपति दीपनि को उजियारौ। देखत हौ हरि देखि तुम्हें यह होत है आँ खिन ही में अखारौ।। शब्दार्थ-काळे = पहने हुए । सितासित = ( सित+ असित ) श्वेत और काली । काछनी = यहाँ एक प्रकार का धांघरा। पातुर ज्यों = वेश्या की ७-मांझ-माह, मंद। दमके-दरसे । सर-रस, दुति । देत-भेद । सुनो-कहो । हैसे ते-तो हँसनि हो तें हियो हरि । ८-बरनहु-बरनत । 8-निनारो-निहारो,निन्यारो । है-जु । हो में-बीच ।