पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५६

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चर्तुदश प्रभाव २५६ पा रही है, ऐसा गाती है मानो स्वयम् सरस्वती ही अवतरित होकर पा गई हो । सुन्दरता भी ऐसी हैं मानो कामदेव की पत्नी रति हो। इस प्रकार उस गोपिका को लाकर राधिका के पास कर दिया । वे अत्यंत आदर के साथ उतावली से उठकर उस गोपिका (गोपाल ) से भेंटने लगी तब सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी। श्रीकृष्णजू को परिहास, यथा-(सवैया) (४८०) सखि बात सुनौ इक मोहन की निकसी मटुको सिर री हलकै । पुनि बाँधि लई सुनियै नतनारु कहूँ कहूँ बुद करी छलकै । निकसी उहि गैल हुते जहँ मोहन, लीनी उतारि जबै चलकै । पतुको धरी स्याम खिसाइ रहे उत ग्वारि हँसी मुख आँचल कै।१७। शब्दार्थ-हलकै = रीती, खाली । नतनारु = मटकी का मुंह बांधने का कपड़ा । छलकै == छलकने के । हुते=थे । चलकै=पाकर । पतुकी = मटकी । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) हे सखी, मोहन की एक बात सुनो । वह ग्वालिनी दूध की खाली मटकी सिर पर लेकर चली । उसने उसका मुंह कपड़े से ढंककर बाँध दिया था और ( दूध ) छलकने की सी बूदें भी मटकी में कहीं कहीं डाल दी थीं। फिर वह उस मार्ग से होकर निकली जहाँ मोहन रहते थे । मोहन ने दूध की मटकी समझकर उसके पास आकर (दान लेने के लिए वह मटकी उतरवा ली )। उसने मटकी रख दी, खोलने पर जब कुछ न निकला तब कृष्ण लज्जित हो गए। उधर वह ग्वालिनी भी मुंह में अंचल लगाकर हँसने लगी। सूचना-(१) यह सवया केवल सरदारवाली प्रति में मिलता है। (२) रसग्राहकचंद्रिका में यह दोहा अधिक है- कह्यो हासरस बरनि यों अरु रस सुगम कवित्त । करुनादिक सिंगारमय बरने समझहु चित्त । अथ करुणरस-लक्षण-( दोहा) (४८१) प्रिय के विप्रिय करन तें, आनि करुनरस होत । ऐसो बरन बखानियै, जैसे तरुन कपोत ।१८। शब्दार्थ-बिप्रिय = अप्रिय, कष्टदायिनी बात। प्रिय के० = प्रिय के लिए अप्रिय कार्य करने से. करुण रस होता है । बरनवर्ण, रंग । तरुन कपोत = युवा कबूतर । ऐसो बरन० = करुण रस का रंग युवा कबूतर की भांति होता है। १७- सखि०--जुवती सुमि प्रौगुन मोहन के । री हलके-रीतिय लैक । सुनिये-सुनिए । नतनारु-नतनासु । पतुको-पिनुखी । १८-तें-को । प्रानि- प्रति । करुन०-करुनारस तहं होत, करना रस होत। .