२६० रसिकप्रिया तेज सूर श्रीराधिकाजू को करुणरस, यथा-(कबित्त) (४८२) अपार, चंद्रमा से सुकुमार, संभु से उदार उर उर धरियत है। इंद्रजू से प्रभु पूरे, रामजू से रनसूरे, कामजू से रूप रूरे हिय हरियत है। सागर से धीर गनपति से चतुर अति, ऐसे अबिबेक कैसें दिन भरियत है। नंद जतिमाः सः जसुदा सों कहाँ कहा, ऐसे पूत पाइ पसुपाल करियत है।१६ शब्दार्थ-तेज प्रताप । सूर = सूर्य । उदार = विशाल । उर वक्ष:- स्थल । उर धरियत है हृदय में समझे जाते हैं। प्रभु = स्वामित्ववाले । रन-सूरे = रणशूर, वीर । रूरे = सुंदर। अविबेक = मूर्खता । कैसें दिन भरियत है - दिन कैसे व्यतीत होते हैं। मतिमंद = मंदबुद्धि । पसुपाल पशुपाल, गोचारण आदि। भावार्थ-सूर्य की भाँति अपार तेजवाले, चंद्रमा की भांति सुकुमार, शिव की भांति उदार वक्ष, इंद्र की भांति प्रभुत्ववाले, राम की भांति वीर, काम की भांति सुंदर छवि से हृदय हरनेवाले, समुद्र की भांति धीर, गणेश की भांति अत्यंत चतुर पुत्र को पाकर उससे पशु चराने का काम कराना कैसी मूर्खता है। नंद तो अत्यंत मंदबुद्धि जान पड़ते हैं, यशोदा को क्या कहूँ ? ( भला ऐसी मूर्खता से ) उनके दिन कैसे कटते हैं । सूचना-'प्रिय का दुःख' आलंबन होने से यहां करुणरस है । श्रीकृष्णजू को करुणरस, यथा-( कबित्त) (४८३) चंपे की सी कलो भली केसव सुबास भरी, रूप की सी मंजरी मधुर मन भाइये। बेद की सी बानी, अति बानी ते सयानी, देव- राय की सी रानी जानी जग सुखदाइये । काम की कला सी, चपला सी, कार मला सी, कमला सी देह धरें पूरे पून्य पाइये । कौने कीनी निपट कुचालि जाति ग्वालि ऐसी, राधिका कुवरि पर गोरस बिचाइयै ॥२०॥ १६-उर--प्रति । अति-चर । २०-भली-अली। भरी-मली। बेद- देव । जानी-केसौदास जग जाइए। काम को०-कामाबला सो कमला सो देखो देह धरे पूरन प्रताप तेज ।
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