पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२५९

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चर्तुदश प्रभाव २६३ होगा-आपने कलह करना त्याग दिया, वियोग को भी दूर कर दिया, अभिमान नहीं करते, भय भी नहीं रहा, औरों को जो सौभाग्य और अनुराग पहले प्राप्त होता था वह राधिका को मिला है। कपट है नहीं दूसरों से मन में भी जान-पहचान नहीं करते, रति में आप कामदेव से भी बढ़कर हैं, अब आपके रोष करने का क्या कारण है ? रोष छोड़िए )। अथ वीररस-लक्षण-(दोहा) (४८७) होहि बीर उत्साहमय, गौर बरन दुति अंग । अति उदार गंभीर कहि, केसव पाइ प्रसंग ।२४। शब्दार्थ -उत्साहमय = उत्साह से युक्त । गौर० = शरीर की चमक, गौर वर्ण । उदार = उच्च भावमय । पाइ प्रसंग अवसर आने पर। श्रीराधिकाजू को वीररस, यथा-( कबित्त) (४८८) गति गजराज साजि देह की दिपति बाजि, हाव रथ भाव पत्ति राजि चली चाल सों। केसौदास मंदहास असि कुच भट भिरे, भेट भए प्रतिभट भले नखजाल सों। लाज-साज कुलकानि सोच पोच भय भानि, भौंहैं धनु तानि बान लोचन बिसाल सों । प्रेम को कवच कसि साहस सहायक लै, जीत्यो रति-रन आज मदनगुपाल सों ॥२५॥ शब्दार्थ-गति = चाल । गजराज = हाथी। बाजि = घोड़ा । हाव = शृंगारिक चेष्टाएँ। भाव = उमंगें । पत्ति = पैदल सिपाही। राजि = समूह । चली चाल सों = चाल से चली, अपनी गति से चली। लाज-साज- लज्जा- शीलता । कुल कानि =कुल की मर्यादा । सोच पोच-बुरा संकोच । भानि: तोड़कर । असि - तलवार। भिरे = लड़े । जाल = समूह । प्रतिभट प्रतिद्वंद्वी, योधा। भावार्थ-( सखी का वचन नायिका प्रति ) चाल रूपी हाथी, अंगदीप्ति रूपी घोड़ा, हाव रूपी रथ, उमंग रूपी ठीक चाल से चलनेवाली पैदल सेना सजाकर, भौंह रूपी धनुष पर विशाल नेत्र रूपी बाण चढ़ाकर, लज्जाशीलता, कुल की मर्यादा, बुरा संकोच और भय रूपी बाधक प्रतिपक्षियों को मारकर, मंदहास रूपी तलवार, कुच रूपी भटों को प्रतिद्वंद्वी के नखाघात रूपी भालों २४-प्रति-अति उर धरि गंभीर । २५-हाब-हास । राजि-राजै । चाल-बाल । भय-भव । पत्ति०-पैदरित । जाल-जान । कसि-साजि । जीति- जीत्यो। रति-रागु।